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________________ अंतरपरूवणा १६४. अब्भव० घादि०४-गोद० जह० जह० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेंजा पो० । अज० जह० एगस०, उक्क० बे सम० । सेसं ओघं । १६५. खइए घादि०४ जह० अज० ओघ । वेद०-णामा-गोदा. ज. जह० एग०, उक्क० तेंतीसं सा० सादि० । अज० ओघं । आउ० जह० जह• एग०, उक्क० पुवकोडितिभागं देसू०। अज० ओघं । १६६. वेदगस० घादि०४ जह. णत्थि अंतरं । अज० एग० । वेद०-णामा० घातिकर्मों के जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इनका जघन्य अनुभागबन्धका एक समय तक ही होता है। इससे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है। शेष कथन सुगम है। १६४. अभव्य जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। शेष कर्मों का भंग ओघके समान है। विशेषार्थ-अभव्य जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्र कर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सर्व विशुद्ध परिणामोंसे होता है। ये परिणाम एक समयके अन्तरसे भी होते है और अनन्त कालके बाद भी होते हैं। इससे यहाँ इन कोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। तथा इन कर्मोके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उस्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है । शेष कथन सुगम है। १६५. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें चार घातिकर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। वेदनीय नाम और गोत्र कर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। आयु कमके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। विशेषार्थ-चार घातिकोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धकी अन्तर प्ररूपणा जिसप्रकार ओघमें कही है, वह क्षायिक सम्यक्त्वमें अविकल बन जाती है, इसलिए यह कथन ओषके समान कहा है। वेदनीय और नाम कर्मका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे गोत्र कमेका जघन्य अनुभागबन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि अवस्थामें संक्लेशपरिणामोंसे होता है। यहाँ ये परिणाम एक समयके अन्तरसे भी हो सकते हैं और साधिक तेतीस सागरके अन्तरसे भी हो सकते हैं। यही कारण है कि यहाँ इन तीनों कर्मो के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। इनके अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर इनके जघन्य अनुभागबन्धके जघन्य और उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रखकर कहा है । पायुकर्मका अन्तरकाल सुगम है। - १६६. वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें चार पाति कर्मों के जपन्य अनुभागवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजपम्प भनुभागबन्धका जघन्य और घरका अन्तर एक समय है। घेदनीय और माम फर्मके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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