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________________ महाभागबंधाहियारे १५६. इत्थि० - पुरिस० घादि०४ जह० अज० णत्थि अंतरं । वेद० णामा०- गोद० जह० ज० एग०, उक्क० पलिदो ० सदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । अज० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । आउ० जह० जह० एग०, उक्क० कार्यट्ठिदी । अज० जह० एग०, उक्क० पणवण्णं पलिदो ० सादि०, तेत्तीसं० सादि० । णवुंस० घादि०४ ज० अज० णत्थि अंतरं । वेद० - आउ०- णामा० जह० ओघं । अज० पुरिस० भंगो । गोद० जह० ओ० । अज० एग० । अवगदवे० सत्तण्णं क० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । ६६ विशेषार्थ - वैक्रियिककाययोगमें चार घातिकर्मों के जघन्य अनुभागके बन्धयोग्य परिणाम कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरसे होते हैं, इसलिए इसमें चारघातिकर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है, यह स्पष्ट ही है । वेदनीय, आयु और नामकर्मका बन्ध मध्यम परिणामोंसे होता है । यतः ये परिणाम कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे हो सकते हैं, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल स्पष्ट ही है। वैक्रियिककाययोगके कालमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धके योग्य परिणाम दो बार नहीं होते, इसलिए यहाँ इसके जघन्य अनुभागबन्ध अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है । १५६. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें चार घाति कर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे सौ पल्य पृथक्त्व और सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । आयु कर्मके जघन्य भागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काय स्थिति प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य और साधिक तेतीस सागर है। नपुंसकवेदी जीवोंमें चार घाति कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघ के समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल पुरुषवेदी जीवोंके समान है । गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल के समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंके क्षपकश्रेणिमें अपने-अपने वेदकी उदयव्युच्छित्तिके अन्तिम समय में चार घातिकर्मोंका जघन्य अनुभागबन्ध होता है तथा इसके पहले इनके अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इन जीवोंके चार घातिकमोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके 'अन्तरकालका निषेध किया है। इन जीवोंके स्वामित्वको देखते हुए वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध एक समय के अन्तर से सम्भव होनेसे यहाँ इन तीन कर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और जघन्य अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे सौ पल्य पृथक्त्व और सौ सागरपृथक्त्व कहनेका कारण यह है कि इन जीवोंके अपनी कायस्थितिके प्रारम्भ और अन्तमें जघन्य अनुभागबन्ध होकर मध्य में सतत अजघन्य अनुभागबन्ध होते रहना सम्भव है । यहाँ इन तीन कर्मों के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर क और उत्कृष्ट अन्तर चार समय इनके जघन्य अनुभागबन्धके जघन्य और उत्कृष्टकालको ध्यानमें For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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