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________________ अंतरपरूवणा ६७ १५७ कोधादि०४ वादि०४ जह० अज० णत्थि अंतरं । सेसाणि मणजोगिभंगो। णवरि लोभे मोह० अज० ओघं । १५८. मदि० -सुद० घादि०४ - गोद० जह० अज० णत्थि अंतरं । सेसाणं पवंसगI भंगो | एव मिच्छादिट्ठी० । विभंगे घादि०४- गोद० जह० अज० णत्थि अंतरं । वेद० - णामा० जह० अज० णिरयोघं । आउ० जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० छम्मासं देख० । रखकर कहा है, यह स्पष्ट ही है । आयुकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध कमसे कम एक समय के अन्तर free of अपनी-अपनी कुछ कम कायस्थिति के अन्तर से हो सकता है, इसलिए यह अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। तथा आयुकर्मका अजघन्य अनुभागबन्ध एक समय के अन्तरसे होने पर इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और जिस पुरुषवेदी या स्त्रीवेदी मनुष्य आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे तेतीस सागर और पचपन पल्य बाँधते समय अजघन्य अनुभागबन्ध किया, पुनः तेतीस सागर और पचपन पल्यकी आयुके अन्तमें पुनः आयुकर्मका अजघन्य अनुभागबन्ध किया, उस पुरुषवेदी और स्त्रीवेदी जीवके आयुकर्मका अजघन्य अनुभागबन्ध क्रमसे साधिक तेतीस सागर और साधिक पचपन पल्य उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। नपुंसकवेदीके पुरुषवेदीके समान चार घातिकमोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, यह स्पष्ट ही है। तथा ओघ प्ररूपणाके समय वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जो अन्तर कहा, वह नपुंसकवेदमें सम्भव है, इसलिये यहाँ यह कथन ओघके समान कहा है । मात्र गोत्रकर्मके श्रजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समयसे अधिक उपलब्ध नहीं होता; क्योंकि नपुंसकोंमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय ही उपलब्ध होता है । इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। अपगतवेदी जीवों में चार घातिकमोंका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है और शेष तीन कर्मोंका उपशमश्रेणिसे गिरते समय अपगतवेदके अन्तिम समयमें होता है । यही कारण है कि यहाँ इन सातों कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। १५७. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें चार घाति कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । शेष कर्मोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि लोभ कषायमें मोहनीय कर्म के अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघ के समान है । विशेषार्थ - क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें चार घातिकर्मोंका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा शेष कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल लाते समय पहले जिस प्रकार मनोयोगी जीवोंके वह घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए, इसलिए वह मनोयोगी जीवोंके समान कहा है। मात्र ओघसे मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त घटित करके बतलाया है, वह यहाँ लोभकषायमें अविकल घटित हो जाता है, इसलिए यह कथन ओघके समान कहा है । १५८. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें चार घाति कर्म और गोत्रकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । शेष कर्मोंका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है । इसी प्रकार मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विभङ्गज्ञानी जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । वेदनीय और नामकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल सामान्य नारकियोंके समान है । आयुकर्मके जघन्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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