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________________ अन्तरपरूवणा १५१. पुढ०-आउ० धादि०४ जह० जह० एग०, उक्क० असंखेंजा लोगा। अज० जह० एग०, उक० बेसम। बादरे कम्मट्टिदो० । पज्जत्ते संखेंजआणि वाससहस्साणि । एवं वेद०-णामा-गोदाणं । णवरि अज० अपजत्तभंगो । एवं आउ० जह० । अज० पगदिअंतरंकादव्वं । एवं तेउ० बाऊणं पि। णवरि गोदणाणा भंगो। वणफदिपत्नय-णियोदाणं च पुढविभंगो। णवरि अप्पप्पणो द्विदीओ कादवाओ। १५२. पंचमण-पंचवचि० धादि०४ ज. अज० णथि अंतरं । वेद-आउ० विशेषार्थ-ओघसे चार घातिकर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल पञ्चेन्द्रियद्विककी मुख्यतासे ही उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ यह अन्तरकाल ओघके समान कहा है। किन्तु वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्मके विषयमें सर्वथा यह बात नहीं है, इसलिए इनका विचार स्वतन्त्ररूपसे किया है। उसमें भी यहाँ जिनकी जो कायस्थिति है, तत्प्रमाण इन कोंके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल बन जाता है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। त्रस, त्रसपर्याप्त और चक्षुदर्शनी जीवोंमें भी चार घातिकमौका ओघके समान और शेषका अपनी-अपनी कायस्थितिके अनुसार यह अन्तरकाल बन जाता है, इसलिये वह इन जीवोंके समान कहा है । शेष कथन सुगम है। १५१. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें चार घाति कर्मोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें कर्मस्थिति प्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंमें संख्यात हजार वर्ष है। इसी प्रकार वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य अनुभागवन्धका अन्तर काल अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार आयुकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल है। इसके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तर कालके समान करना चाहिये । इसी प्रकार अमिकायिक और वायुकायिक जीवोंके भी जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें गोत्रकर्मका भंग ज्ञानावरणके समान है। वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और निगोद जीवोंमें पृथिवी कायिक जीवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति करनी चाहिये। विशेषार्थ-पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। इसीसे इन जीवों में चार घातिकर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इतनी विशेषता है कि कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें बादर पर्याप्त कराके इन कर्मोंका जघन्य अनुभागबन्ध कराकर यह अन्तरकाल ले आवें । यहाँ शेष चार कोंके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल भी इसी प्रकार ले आवें। पर यह केवल बादर पर्याप्तके ही प्राप्त होता है.यह नियम नहीं है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी उक्त प्रमाण कायस्थिति होनेसे इनमें भी यह अन्तर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इन दोनों कायवाले जीवोंमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामित्व ज्ञानावरणके समान होनेसे इसका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है। यहाँ अन्य जितने कायवाले जीव गिनाए हैं, इनमें भी उनकी कायस्थितिको जानकर उक्त अन्तर काल ले आना चाहिए। कोई विशेषता न होनेसे यहाँ उसका अलगसे निर्देश नहीं किया है । शेष कथन सुगम है। १५२. पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंमें चार घाति कर्मों के जघन्य और अजधन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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