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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १४९. बेदि ० - इंदि० चदुरिंदि ० तेसिं च पञ्जत्त० सत्तण्णं क० जह० ज० एग०, उक्क० संखेजाणि वाससहस्साणि । अज० अपात्तभंगो । आउ० जह० णाणावरणभंगो० । अज० पगादिअंतरं । ६२ १५०. पंचिंदि० - पंचिंदियपजत्त० घादि०४ जह० अज० ओघं । वेद० आउ०णामा० ज० जह० एग०, उक्क० कार्यद्विदी० अज० ओघं । गोद० जह० अंतो०, उक्क० काय हिदी० । अज० ओघं । एवं तस-तसपजत्त चक्खुदं० । और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण उपलब्ध होता हैं । यह भी यहाँ इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। एकेन्द्रियोंमें पृथिवीकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति बाईस हजार वर्ष है। यदि कोई एकेन्द्रिय पूर्व भवके प्रथम विभाग में आयुकर्मका अजघन्य अनुभागबन्ध करके बाईस हजार वर्ष की आयुवाला पृथिवीकायिक होता है और वहाँ भवके अन्त में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर अजघन्य अनुभागबन्ध करता है, तो आयुकर्म के अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष उपलब्ध होता है। एकेन्द्रियों में प्रकृतिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर इतना ही है । यही कारण है कि यहाँ आयुकर्मके अजघन्य अनुभाग बन्धका उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान कहा है। एकेन्द्रियों में गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध बादर अभिकायिक और वायुकायिक जीवों होता है । इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए यहाँ गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है । यह सामान्य एकेन्द्रियों की अपेक्षा अन्तरकाल कहा है । बादर एकेन्द्रिय, बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रियकी काय स्थिति क्रमसे अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण, संख्यात हजार वर्ष और असंख्यात लोक प्रमाण है । इसलिये इसके अनुसार आठ कर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए। शेष कथन सुगम है । १४६ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें तथा उनके पर्याप्तकों में सात कर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। अजघन्य अनुभागबन्धका भंग अपर्याप्तकोंके समान है । आयुकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका भंग ज्ञानावरण समान है । अजघन्य अनुभाग बन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । विशेषार्थ -- इन जीवोंकी कायस्थिति संख्यात हजारवर्ष है । इसलिए इनमें सात कर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात हजार वर्षं कहा है। आयुकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ज्ञानावरण के समान कहा है । यहाँ प्रकृतिबन्धमें आयुकर्म का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक बारहवर्ष, साधिक उनचास दिन-रात और साधिक छह महीना प्रमाण कहा है। यहाँ आयुकर्म के अजघन्य अनुभागबन्धका यह अन्तर इसी प्रकार उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ इसके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान कहा है। शेष कथन सुगम है । १५० पंचेन्द्रिय और पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें चार घातिकर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघ के समान है । वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धतर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघ के समान है । गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल श्रोघके समान है । इसी प्रकार नस, त्रस पर्याप्त और चतुदर्शनी जीवोंके जानना चाहिये । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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