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________________ अन्तरपरूवणा ६१ जह० एम०, उक्क० बेसम० । वेद०-णामा० जह० ज० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० देसू० | अज० ज० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । आउ० णिरयभंगो । गोद० ज० ज० एग०, उक्क० ऍकतीसं० देसू० । अज० जह एग०, उक्क० चचारि सम० । एवं सव्वदेवाणं । णवरि अणुदिस याव सव्वड्डा त्ति गोद० घादिभंगो । १४८, एदिए घादि०४ जह० ज० एग०, उक्क० असंखेजा लोगा । अज० जह० एग०, उक्क० बे सम० । वेद० आउ० णामा० तिरिक्खोघं । णवरि आउ० अज० उक्कस्स० पगादिअंतरं । गोद० ज० जह० एग०, उक्क० अनंतकालं० । अज० जह० एम०, उक्क० बे सम० । बादरे० अंगुल० असंखे० । पजत्ते संखेजाणि वाससहस्साणि । सुम • असंखेजा लोगा । ० उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय और नामकर्मके जघन्य अनुभाग बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। आयु कर्मका भंग नारकियों के समान है । गोत्रकर्मके जघन्य अनुभाग बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृट अन्तर चार समय है । इसी प्रकार सब देवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें गोत्र कर्मका भंग चार घातिकर्मों के समान है । विशेषार्थ - सामान्यसे देवोंमें चार घातिकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टिके होता है । तथा वेदनीय और नामकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टिके भी होता है। अतः यहाँ इन छह कर्मोंके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । मात्र गोत्र कर्मका जघन्य अनुभागबन्ध मिध्यादृष्टिके ही होता है और मिथ्यात्व गुणस्थान अन्तिम प्रैवेयक तक ही उपलब्ध होता है, अतः यहाँ गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है । भवनत्रिक आदि देवोंमें जहाँ जो स्थिति हो, उसे ध्यानमें रखकर अपना अपना यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोंमें गोन्नकर्मका जघन्य भागबन्ध सम्यग्दृष्टिके ही होता है, इसलिए इनमें गोत्र कर्मका भङ्ग चार घातिकर्मोंके समान कहा है । शेष कथन सुगम है । १४८ एकेन्द्रियोंमें चार घातिकर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय, आयु और नामकर्मका भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि आयु कर्मके अजघन्य अनुभाग बन्धका उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्ध के अन्तरके समान है । गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । बादर एकेन्द्रियों में जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अंगुल असंख्यातवें भाग प्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है । विशेषार्थ - एकेन्द्रियोंमें चार घातिकमोंका जघन्य अनुभागबन्ध बादर एकेन्द्रियोंके होता है और बादर एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है, इसलिए इनमें चार घासिकमके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। सामान्य तिर्यग्योंमें वेदनीय, भायु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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