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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १४५. पंचिंदि० तिरि० अपज. धादि०४ जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० बेसम० । वेद०-णामा-गोदा० जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क. चत्तारिसम० । आउ० जह० अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं सव्वअपजत्त-सुहुमपजत्ताणं च । १४६. मणुस०३ पादि०४ जह० पत्थि अंतरं। अज० जह० उक्क० अंतो० । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। पवरि वेद०-णामा-गोदा. अज० जह० एग०, उक्क० अंतो। १४७. देवेसु धादि०४ जह० ज० एग०, उक्क० तेतीसं साग० देसू० । अज० अन्तर अनन्तकाल है, इसलिए यहाँ गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। पंचेन्द्रिय तियश्चत्रिकर्म संयतासंयत गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है, इसलिए इनमें चार घातिकर्मो के जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण कहा है। यद्यपि इनमें गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध मिध्यादृष्टि परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले पंचेन्द्रिय जीवके होता है, पर ऐसी योग्यता भोगभूमिमें सम्भव नहीं; इसलिए इनमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण कहा है। आयुकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध भी यही कर्मभूमिके पश्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागधन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी उक्त प्रमाण कहा है। मात्र वेदनीय और नामकर्मके जघन्य अनुभागका बन्ध भोगभूमि और कमभूमि दोनोंके सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है। इन सब स्थलोंमें उत्कृष्ट अन्तर लाते समय प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य अनुभागबन्ध कराकर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। शेष कथन सुगम है, इसलिए उसका अलग से निर्देश नहीं किया। १४५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें चार घातिकर्मोके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धक जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, और सूक्ष्म पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। १४६ मनुष्यत्रिक में चार घातिकों के जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । शेष कर्मोके अनुभागबन्धके अन्तरकाल का भंग पचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ-मनुष्यत्रिमें चार घातिकर्मों के अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल उपशमश्रेणिमें उपलब्ध होता है । तथा इसी प्रकार वेदनीय, नाम और गोत्रकमके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी उपशमश्रेणिमें उपलब्ध होता है। यतः उपशमश्रेणिमें इन सबका बन्ध मनुष्यत्रिफमें अन्तर्मुहूर्त काल तक नहीं होता, अतः यहाँ चार घातिकर्मोके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल तथा वेदनीय, नाम गोत्रके अजघन्य अनुभागबन्धका अकृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। १४७ देवों में चार धातिकोके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्सर एक समय है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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