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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १३१. कोधादि०४ धादि०४-आउ० उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसम० । वेद०-णामा-गो० उक्क अणु० णत्थि अंतरं । णवरि लोमे मोहणी० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । १३२. मदि०-सुद० घादि०४ तिरिक्खोघं । आउ० उक्क० धादिभंगो। अणु० ओघं । वेद०-णामा-गोदा० उक्क० अणु० णत्थि अंतरं। एवं असंजद०-मिच्छादि० । विमंगे धादि०४ णिरयोघं । वेद०-णामा-गोदाणं उक्क० अणु० णत्थि अंतरं । आउ० उक्त० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० एग०, उक्क० छम्मासं देसूर्ण। आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके पुनः नपुंसकवेदी नहीं होते, इसलिए इनमें आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण कहा है । अपगतवेदी जीवोंमें चार घातिकर्मोंका उत्कष्ट अनभागवन्ध उपशमणि गिरनेवाले जीवके अपगतवेदके अन्तिम समयमें होता है और वेदनीय, नाम व गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकणिमें होता है, इसलिए इनमें उक्त सात कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है। १३१. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें चार घातिकर्म और आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि लोभकषायवाले जीवोंमें मोहनीयके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-जो जीव उपशमश्रेणि पर आरोहण करता है, उसके क्रोध, मान और माया कषायका अभाव होकर लोभकषायके सद्भावमें मोहनीय कर्मकी बन्धव्युच्छित्ति होती है और ऐसा जीव सूक्ष्मसाम्परायम मरकर देव पोयम यदि उत्पन्न होता है, तो वहाँ भी लाभकषायका सद्भाव बना रहता है, इसलिए लोभकषायमें मोहनीयके अनुत्कष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल बन जाता है। अब यदि यह जीव दसवें गुणस्थानमें एक समय तक रहकर मरता है, तो एक समय अन्तरकाल उपलब्ध होता है और यदि अन्तर्मुहूर्त रहकर मरता है तो अन्तर्मुहूर्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है । यही कारण है कि लोभकषायमें मोहनीयके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है। १३२. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें चार घातिकर्मीका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग घातिकों के समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओघके समान है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार असंयत और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। विभङ्गज्ञानी जीवोंमें चार घातिकर्मोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह मास है। विशेषार्थ-मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानमें संयमके अभिमुख हुए जीवके अन्तिम समयमें वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है. इसलिए इनमें इन कर्मों के उत्कष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध के अन्दर कालका निषेध किया है। विभङ्गज्ञान में आयकर्मका उत्कृष्ट अनुJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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