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________________ अन्तरपरुवणा ५१ १३०. इत्थि० घादि०४ उक्क० जह० एग०, उक्क० कार्यट्ठिदी० । अणु० जह० एग०, उक्क बेसम० । वेद०-णामा-गोदा० उक्क० अणु० णत्थि अंतरं । आउ० उक० जह० एग०, उक्क० कायट्ठिदी० । अणु० जह० एम०, उक्क० पणवण्णं पलिदो ० सादि० । पुरिस० घादि०४ उक्क० जह० एग०, उक्क० कार्याद्विदी० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसम ० ० । वेद० णामा- गोदा० इत्थिवेदभंगो । आउ० उक्क णाणा०भंगो । अणु० जह० एग०, उक्क० तेतीसं० सादि० । णवंसगे घादि०४ तिरिक्खोघं । वेद०-णामा-गोदा० इत्थवेदभंगो । आउ० उक्क० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं दे० । अणु० जह० एग०, उक्क • तैंतीसं साग० सादि० । अवगदवेदे सत्तण्णं क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० उक्क० अंतो० । घातिकर्मोंका संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टिके और वेदनीय, नाम और गोत्रका सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध होता है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगमें भी उक्त कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल न होनेका कारण है। शेष कथन सुगम है । १३०. स्त्रीवेदी जीवोंमें चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एकसमय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है । पुरुषवेदी जीवोंमें चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थिति प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। आयुकर्म के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधक तेतीस सागर है । नपुंसक - वेदी जीवोंमें चार घातिकर्मोका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवों के समान है । आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अपगतवेदी जीवोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ - स्त्रीवेदमं वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल यद्यपि उपशमश्रेणिमें सम्भव है, पर इनकी बन्धव्युच्छित्तिके पहले ही स्त्रीवेदका उदय नहीं रहता, इसलिए इसमें इन तीन कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भी अन्तरकाल नहीं बनता । देवियोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति पचपन पल्य है, इसलिए इसमें आयुकर्म के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य कहा है। क्योंकि जो पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य प्रथम त्रिभाग में आयुकर्मका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, पुनः पचपन पल्की युवाली देवी होकर वहाँ छह महीना काल शेष रहने पर पुनः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, उसके आयुकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य उपलब्ध होता है। नपुंसकवेदी जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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