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________________ अन्तरपरूवणा ५.३ ० १३३, आभि० - सुद० अधि० सत्तण्णं क० उक० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आउ० उक्क० जह० एग०, उक्क० छावट्टि • देसू० । अणु० ओघं । एवं अधिदं ० - सम्मादि ० | मणपजव० सत्तण्णं क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जहण्णु० अंतो० । आउ० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । एवं संजदसामाइयच्छेदो ० | णवरि सामाइय-च्छेदो० सत्तण्णं क० अणु० णत्थि अंतरं । १३४. परिहार • घादि०४ उक्क० अणुक्क० णत्थि अंतरं । वेद० णामा गोदा० उक्क० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडि० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसम० । भागबन्ध तिर्यञ्च और मनुष्यके होता है, इसलिए इसमें आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । १३३. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर धके समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ - श्रभिनिबोधिक आदि तीन ज्ञानोंमें चार घातिकमोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिध्यात्व अभिमुख हुए जीवके अन्तिम समयमें होता है और वेदनीय, नाम व गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनमें उक्त सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इनमें उक्त सातों कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल उपशमश्रेणिकी अपेक्षा बन जाता है जो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। यद्यपि अभिनिवोधिक आदि तीनों ज्ञानोंका उत्कृष्ट काल चार पूर्वकोटि अधिक छियासठ सागर है, पर यहाँ आयुकर्म के "उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर ही बनता है, क्योंकि यहाँ पर वेदकसम्यक्त्वकी मुख्यतासे ही यह अन्तरकाल उपलब्ध होता है । मन:पर्ययज्ञानमें असंयम के अभिमुख हुए जीवके अन्तिम समयमें चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है और वेदनीय, नाम व गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसमें इन सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा इसमें इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि यह जीव उपशमश्रेणि पर चढ़कर अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका अबन्धक रहता है। सामायिक और छेदोपस्थापना संयम नौवें गुणस्थान तक ही होते हैं, इसलिए इनमें युके सिवा शेष सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता, इसलिए उसका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है । १३४. परिहारविशुद्धसंयंत जीवोंमें चार वातिक्रमके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है | वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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