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________________ महाबँधे अणुभागधाहिया रे अंतरपरूवणा ११८. अंतरं दुविधं - जहण्णयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि० - ओघे० आदे० । ओघे० घादि०४ उक्क० अणुभाग० अंतरं केवचिरं० १ जह० एग०, उक्क० अनंत ० असंखेजा० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । वेद० णामा० गोदा० उक० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क अंतो० । आउ० उक्क० जह० एग०, उक्क० अद्धपोंग्गल० । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस० सादि० । एवं ओघभंगो अचक्खुदं०भवसि० । ४४ अन्तरप्ररूपणा ११८. अन्तर दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । ओघसे चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका कितना अन्तर है ? जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है | वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकम के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण । अनुत्कृष्ट अनुभागन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। इस प्रकार के समान अचतुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिए । विशेधार्थ -- चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध जिन परिणामों के प्राप्त होनेपर होता है, वे एक समय के बाद पुनः प्राप्त हो सकते हैं और असंज्ञी तकके जीषोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति अनन्तकाल प्रमाण है । इतने कालके भीतर इन कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता, अतएव इन कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। एक समय तक अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होकर पुनः उत्कृष्ट अनुभागवन्ध सकता है। तथा उपशमश्रेणिसे उतर कर पुनः उपशमश्रेणि पर चढ़कर उपशान्तमोह होने तकका काल अन्तर्मुहूर्त है, और बीच में अन्तर देकर इतने काल तक इन कर्मोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इन कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है । जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़कर एक समय या अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका बन्धक होकर पुनः इन कर्मोका बन्ध करता है, उस जीवकी अपेक्षा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होने से वह उक्त प्रमाण कहा है। आयुकर्मका एक समयका अन्तर देकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है। तथा अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें और कुछ कालसे न्यून अन्तमें अप्रमत्तसंयत होकर आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल प्रमाण कहा है। जो जीव अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके बाद एक समय तक उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके पुनः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करने लगता है, उसके श्रायुकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है और जो पूर्वको टिके प्रथम विभाग के आयुध के अन्तिम समय में अनु अनुभागबन्ध करके पुनः उत्कृष्ट आयुके साथ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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