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________________ अन्तरपखणा ४५ ११९. णिरएसु सत्तण्णं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसम० । आउ० उक्क० अणु० जह० एग०, उक० छम्मासं देसू० । एवं सव्वणिरएसु अप्पप्पणो हिदी देसूर्ण कादव्वं । १२०. तिरिक्खेसु घादि०४ उक० जह० एग०. उक० अणंतका० । अणुकस्स० जह० एगसमयं, उकस्सयं संखेजसमयं । वेद०-णामा-गोदा० उक० जह० एग०, उक्क० अद्धपोग्गल । आउ० उक० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादि । देव या नारकी होकर यह छह महीना काल शेष रहने पर पुनः अनुरस्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है उसके आयुकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होता है । यही कारण है कि आयुकर्म के अनुस्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। ११६. नारकियोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छ कम छह महिना है। इसी प्रकार सब नरकोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये।। विशेषार्थ-यहाँ सामान्यसे नरकमें यह अन्तरकाल कहा है। इसे उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट काल का विचार करके ले आना चाहिए। नरकमें उत्पन्न होनेके बाद पर्याप्त होने पर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है और उसके बाद अन्तमें वह सम्भव है, इसलिए यहाँ सातों कोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। प्रथमादि नरकोंमें जिस नरककी जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसका विचार कर उस-उसनरकमें सातों कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले पाना चाहिए । शेष कथन सुगम है । १२०. तिर्यश्चोंमें चार घातिकर्मीके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात समय है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल प्रमाण है। आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। अनुकृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। विशेषार्थ--तिर्यञ्चोंमें चार घातिकोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके होता है और इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए इनमें चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। तथा तिर्यञ्चोंमें इन कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट रूपसे संख्यात समय अर्थात् दो समय तक होता रहता है, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात समय कहा है । इनमें वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संयतासंयत जीवके होता है और तिर्यश्च रहते हुए इनमें संयतासंयत गुणस्थानका कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अन्तरकाल सम्भव है, इसलिए इनमें वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तत्रमाण कहा है । जो तिर्यश्च पूर्वकोटिके त्रिभागमें आयुकर्मका उत्कष्ट अनुभागबन्ध करके पुनः अन्तिम त्रिभागमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, उसके आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। अतएव तिर्यश्चोंमें आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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