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________________ कालपरूवणा ११०. विभंगे धादि०४-गोद० जह० एग०, उक्क० एग०। अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० देसू । वंद०-णामा० जह० ओघ । अज० णाणावरणभंगो। १११. आमि--सुद०-ओधि० घादि०४-गोद० जह० एग०, उक्क० एग० । अज० जह० अंतो०, उक्क० छावट्ठिसागरो० सादि० । वेद०-णामा० जह० ओघ । अज० जह० एग०, उक्क० णाणावरणभंगो । मणपजव० घादि०४-गोद०: जह० एग०, उक्क० एग० । अज० जह० एग, उक्क० पुव्वकोडी दे । वेद०-णामा० जह० ओघं । अज० णाणावरणभंगो । एवं संजद-सामाइय-च्छेदो०। ११२. परिहार० धादि०४-गोद० जह० एग० । अज० जह अंतो, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । वेद०-णामा० मणपजवभंगो । एवं संजदासंजदस्स । सुहुमसंपराइ० छण्णं क० अवगद०भंगो। ११०. विभंगज्ञानी जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है । वेदनीय और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका काल ज्ञानावरणके समान है। १११. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें चार धातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक छियासठ सागर है । वेदनीय और नामकमेके जघन्य अनुभागबन्धका काल अओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल ज्ञानावरणके समान है। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें चार बालिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल एक समय है । इसी प्रकार अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण है । वेदनीय और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है । अजघन्य अनुभाग बन्धका काल ज्ञानावरणके समान है। इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी आदि तीन ज्ञानवाले जीवोंमें चार घातिकोका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकौणिमें होता है । उपशमश्रेणिपर आरोहणकर और उतरकर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । तथा गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संलशवाले मिथ्यात्वके अभिमुख जीवके होता है। इन जीवोंके गोत्रकर्मका एक बार जघन्य अनुभागबन्ध होनेपर पुनः उसके जघन्य अनुभागबन्धके योग्य यह अवस्था अन्तर्मुहूर्तकालके पहले नहीं हो सकती! अतः इनमें इन पाँचकर्मो के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा वेदनीय और नामकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध पर्याप्त निवृत्तिसे निवर्तमान मध्यम परिणामवाले किसी भी जीवके हो सकता है। ऐसे जीवके एक बार जघन्य अनुभागबन्ध होकर और बीच में अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर देकर पुनः जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनमें वेदनीय और नामकर्मके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय कहा अनधारावधाका जघन्यकाल एक समय कहा है। शेष कथन सगम है। ११२. परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण है। वेदनीय और नामकर्मका भंग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। सूक्ष्मसांपरायित जीवोंमें छह द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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