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________________ कालपरूवणा ३७ पंचिदियतिरिक्ख ०३ घादि०४ उकस्सभंगो । वेद० णामा-गोदा० जह० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । अज० जह० एग०, उक० कार्यट्ठिदी० । पंचिंदियतिरिक्ख अपज० घादि०४ जह० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । वेद०-णामा - गोदा० जह० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो ० । एवं सव्वअपत्तगाणं तसाणं थावराणं च मुहुम-पजत्तगाणं च । १०२. मणुस ०३ घादि०४ जह० ओघं । अज० अणुक्कस्सभंगो । वेद [०-णामागोदा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । १०३. देवाणं घादि०४ जह० णिरयभंगो । अज० जह० एग०, उक० तेतीसं सा० । वेद०-गामा - गो० तं चैव । णवरि जह० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो हिदी भाणिदव्वा । णवरि अणुदिस याव सव्वट्टा त्ति गोदस्स जह० अणु० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अज० जह० एग०, उक्क० अप्पप्पणी भवदी० । समान है | वेदनीय नाम और गोत्रकर्मके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है । जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल काय स्थिति प्रमाण है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकों में चार घातिकर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त त्रस और स्थावर तथा सूक्ष्म और उनके पर्याप्त जीवों के जानना चाहिये । विशेषार्थ -- तिर्यञ्चों में और इनके अवान्तर भेदोंमें कालका विचार स्वामित्व और कायस्थितिको ध्यान में रखकर कर लेना चाहिये । विशेषता इतनी है कि यहाँ चार घातिकर्म और गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध मूलोघके समान सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कार्यस्थिति प्रमाण बन जाता है । इसी प्रकार यहाँ वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका विचार कर काल ले आना चाहिए । १०२. मनुष्यत्रिमें चार घातिक्रमोंके जयन्य अनुभागबन्धका काल के समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कष्टके समान है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका भङ्ग पंचेन्द्रिय तिर्यखोंके समान हैं। १०३. देवों में चार घातिकर्मो के जघन्य अनुभागबन्धका काल नारकियोंके समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । वेदनीय, नाम और गर्म वही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। इसी प्रकार सब देवोंके जानना चाहिए। किन्तु अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जवन्य काल एक समय है और उत्कष्ट काल अपनी-अपनी भवस्थिति प्रमाण है 1 विशेषार्थ - नारकियों से देवोंमें दो विशेषताएँ हैं। प्रथम तो यह कि देवों में और उनके अवान्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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