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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १०४. एइंदि० बेइंदि०-तेइंदि०-चदुरिंदि० धादि०४ जह० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अज० जहः एग०, उक० अणुकस्मभंगी। वेद०-णामा-गो० जह० जह० एग०, उक० चत्तारि समयं । अज० अणुकस्सभंगो । णवरि एइंदि० गोद० जह० जह एग०, उक० बेसम० । अज० जह० एग०, उक० अणतकालं० । १०५. पंचिंदि०-तस०२ सत्तण्णं क० जह० ओघं । अजहण्ण० ओघभंगो । णवरि कायद्विदी भाणिदव्वं । पुढवि०-आउ०-बादरवणप्फदिपत्ते-णियोद० सत्तण्णं क० जह० पंचिंदि०तिरि०अपजत्तभंगो। अज० सव्वाणं अप्पप्पणो अणुक्कस्सभंगो। तेउ०-वाउ० एवं चेव । णवरि गोद० घादीणं भंगो कादव्वो। भेदोंमें गोत्रकर्मका स्वामित्व सामान्य नारकियोंके समान न होकर दूसरी पृथिवीके समान है, इसलिए यहाँ गोत्रकर्म के जघन्य अनुभागबन्धका काल वेदनीय और नामकर्म के साथ कहा गया है । दसरे अनदिशसे लेकर आगे गोत्रकर्मके जघन्य अनभागबन्धका स्वामित्व सम्यग्दृष्टि संक्लिष्ट परिणामवाले जीवको प्राप्त होता है और इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है, इसलिए अनुदिश आदिमें गोत्रकर्म के जघन्य अनभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । शेष कथन सुगम है। १०४. एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय जीवोंमें चार घातिकर्मोके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनुत्कृष्टके समान है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके जघन्य अनभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनभागबन्धका अनुत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंमें गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनभागबन्धका जघन्य काल एक समय हे और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें गोत्रकर्मका जघन्य अनभागबन्ध बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव पर्याप्त अवस्थामें पूर्ण विशुद्ध होकर करते हैं। इससे इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। ऐसे ये एकेन्द्रियादिक जीव चार घातिकर्मोंका जघन्य अनुभागवन्ध सर्वविशुद्धि होकर करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका भी जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। शेष कथन सुगम है। १०५. पंचेन्द्रियद्विक और त्रसद्विकमें सात कर्मोंके जघन्य अनभागबन्धका काल ओघके समान है । अजघन्य अनभागबन्धका काल भी अओघके समान है । इतनी विशेषता है कि कायस्थिति कहनी चाहिये । पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर और निगोद जीवोंमें सात कर्मों के जघन्य अनुभागबन्धका काल पंचेन्द्रियतियश्च अपर्याप्तकोंके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका काल सबका अपने-अपने अनुत्कृष्टके समान है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि गोत्रकर्मका भङ्ग घातिकर्मोके समान करना चाहिये । विशेषार्थ-पंचेन्द्रियद्विक और त्रसद्विककी कायस्थितिका निर्देश उत्कृष्ट कालका निर्देश करते समय कर आये हैं। उसे जानकर यहाँ सात कर्मों के अजघन्य अनभागबन्धका उत्कृष्ट काल कहना चाहिए । एकेन्द्रियोंमें गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीव सर्वविशुद्ध होकर करते हैं, इसलिए अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें गोत्रकर्मका काल घातिकर्मों के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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