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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १००. णिरएसु धादि०४ जह• जह• एग०, उक्क • बेसमयं । अज० जह. एग०, उक्क० तेंतीसं सा० । वेद०-णामा० जह० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । गोद० जह० अणु० जहण्णुक्क० एग० । अज० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० । एवं सत्तमाए पुढवीए। पढमाए याव छट्टि त्ति तं चेव । णवरि अण्पप्पणो द्विदी भाणिदव्या । गोद० जह० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । अज० जह० एग०, उक्क० भवहिदी भाणिदव्वा । १०१. तिरिक्खेसु धादि०४ गोद० जह• जह• एग०, उक्क० बेसमयं । अज० जह० एग०, उक्क० अणंतकालं० । वेद०-णामा० ओघं । एवं अब्भवसि०-असण्णीसु । इसके अजघन्य अजुभागबन्धका काल जिस प्रकार चार घातिकर्मीका घटित करके बतला पाये हैं, उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। यहाँ ओघके समान मत्यज्ञानी आदि छह अन्य मार्गणाओंका निर्देश किया है सो इनमें भव्यमार्गणाके सिवा शेष मार्गणाओंमें स्वामित्वकी अपेक्षा कुछ भेद रहने पर भी कालप्ररूपणा ओघके समान अविकल बन जाती है, इसलिए इनमें कालका निर्देश ओघके समान किया है। १००. नारकियोंमें चार घातिकर्मोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। वेदनीय और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिये । पहली पृथिवीसे लेकर छठवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है। और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी भवस्थिति प्रमाण कहना चाहिये। विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें और प्रत्येक पृथिवीमें चार घातिकर्मोंका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि सर्वविशुद्धके होता है। इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे यहाँ चार घातिकर्मोके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट कान दो समय कहा है। सामान्य नारकियोंमें और सातवीं पृथिवीमें गोत्रकर्म के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि यहाँ गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध होनेके बाद ऐसा जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक नियमसे नरकमें रहता है। प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला जीव करता है, इसलिए यहाँ इसके जवन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। शेष कथन सुगम है। १०१. तिर्यश्चोंमें चार घातिकर्म और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है। वेदनीय और नामकर्मका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अभव्य और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए। पचेन्द्रियतिर्यश्च त्रिकमें चार घातिकर्मोका भङ्ग उत्कृष्टके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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