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________________ कालपरूवणा चत्तारि समयं । अज० जह० एग०, • उक्क० असंखज्जा लोगा। आउ० जह० जह० एग०, उक० चत्तारि समयं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं आउ० याव अणाहारग त्ति । एवं ओघभंगो मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु०-भवसि०-मिच्छादि० । णवरि भवसि० अणादियो अपज्जवसिदो णत्थि । है। अजघन्य अनुभागबन्धके तीन भङ्ग हैं। वेदनीय और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। आयुकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार आयुकर्मका विचार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। इसी प्रकार ओघके समान मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि भव्योंमें अनादि-अनन्त भङ्ग नहीं है। विशेषार्थ-चार घातिकर्मोका जघन्य अनुभागवन्ध क्षपकश्रेणिमें बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है तथा गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्धसातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्वके अभिमुख जीवके बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इन पाँच कर्मोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इनके अजघन्य अनुभागबन्धके तीन भङ्ग है-अनादिअनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । सादि-सान्त अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्महूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । खुलासा इस प्रकार हैकिसी एक जीवने उपशमश्रेणि पर आरोहण किया और उतर कर पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर वह क्षपकणि पर आरोहण करके उक्त कर्मोंका जघन्य अनुभागबन्ध करता है। तब उसके उक्त चार कांके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूत उपलब्ध होता है। और यदि कोई अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें उपशमश्रेणि पर आरोहण कर उपशान्तमोह हो गिरता है तथा अन्तमें क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर मुक्ति लाभ करता है, तब उसके उक्त कर्मोके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण उपलब्ध होता है। वेदनीय और नामकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले जीवके होता है, इसलिये इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव एक समय तक अजघन्य अनुभागबन्ध करके जघन्य अनुभागबन्ध करने लगता है, उसके इनके अजघन्य अनुभाग बन्धका एक समय काल ही उपलब्ध होता है। इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । कारण यह है कि इन दोनों काँका जघन्य अनुभागबन्ध सूक्ष्म एकेन्द्रियों में नहीं होता. उनके निरन्तर अजघन्य अनुभागबन्ध होता रहता है और उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण कही है। आयुकर्मके जघन्य अनुभागबन्धके जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समयका तथा अजघन्य अनुभागबन्धके जघन्य काल एक समयका खुलासा नाम और गोत्रकर्मके समान है । प्रायुकर्मका निरन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध होता है, इसलिये इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सातवीं पृथिवीके नारकीके सम्यक्त्वके अभिमुख होने पर अन्तिम अनुभागबन्धमें अवस्थित होने पर होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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