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कालपरूवणा
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१५. पंचण्णं लॅस्साणं सत्तण्णं क० उक० जह० एग०, उक० बेसम० । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सत्तारस०-सत्त०-बेसा०-अट्ठारस० सादि० । णवरि तेउ०-पम्माए. वेद०-णामा-गोदा० यदि दसणमोहक्खवगस्स सामित्तादो उक्क. एग० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० कायद्विदी० ।
९६. सुक्काए धादि०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । वेद०-णामा-गोदा० उक्क० एग० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० तेतीसं साग० सादि।
बन्धका काल दो प्रकारसे बतलाया है। प्रथम तो चार घातिकर्मों के समान ही इनका काल है। फिर प्रकारान्तरसे इनका काल दूसरा कहा है। इस भेदका कारण क्या है,यह विचारणीय है। विदित होता है कि सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयतके इनका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध मानने पर इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय उपलब्ध होता है और दर्शनमोहनीयकी क्षपणावाले सर्वविशद्ध अप्रमत्तसंयतके अन्तिम उत्कृष्ट अनुभागबन्धके होने पर जब इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध माना जाता है,तब इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय उपलब्ध होता है। इसी प्रकार प्रथम विकल्पकी अपेक्षा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और दूसरे विकल्पकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है।
५. पाँच लेश्यावाले जीवोंमें सातकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर, साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है । इतनी विशेषता है कि पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें वेदनीय, नाम
और गोत्रकर्मके विषयमें यदि दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव है, तो स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कायस्थिति प्रमाण है।
विशेषार्थ-पीत और पद्म लेश्यावाले दर्शनमोहनीयके क्षपक जीवके अन्तिम उत्कृष्ट अनुभागबन्धके समय वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय उपलब्ध होता है। शेष कथन सुगम है।
६६. शुक्ल लेश्यवाले जीवोंमें चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीससागर है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । अनुस्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें शुलालेश्यावाले जीवोंके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ--शुक्लालेश्यामें वेदनीय, नाम और गोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा है । तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है,यह स्पष्ट ही है । कारण कि शुक्ललेश्याका यही काल है। इतने काल तक इसके निरन्तर अनुस्कृष्ट अनुभागबन्ध होता रहता है। शेष कथन सुगम है।
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