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________________ महाबंध अणुभागबंधाहियारे ६३. आभि० - सुद० -ओधि० सत्तण्णं क० उक्क० एग० । अणु० जह० अंतो०, उक्क ० छाव डि० साग० सादि० । एवं ओधिदंस ० - सम्मादि ० - वेदग० । णवरि वेदगे ० छाडि ० । ३२ ९४. मणपज्जव० सत्तणं क० उक्क० एग० । अणु० जह० एग०, उक्क० पुत्रकोडी दे० । एवं संजद- सामाइ० छेदोव० । परिहार० सत्तण्णं क० उक्क० एग० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० पुचकोडी दे० । अथवा वेद ६०-णामा-गोदाणं च उक्क० जह० एग०, उक्क • बेसम० । अणु० जह० एग०, उक्क० तं चैव । एवं [ संजदासंजदाणं । चक्खु० तसपञ्जतभंगो। ] विशेषार्थ - जो मिथ्यादृष्टि मनुष्य संयम के अभिमुख और सर्वविशुद्ध होता है, उसके अन्तिम उत्कृष्ट अनुभागबन्धके समय वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है । अन्यत्र इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इन तीनों कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा है। तथा विभङ्गज्ञानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तैंतीस सागर है। इससे सातों कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। शेष कथन सुगम है । ६३. अभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनु भागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय | अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक छियासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्टकाल पूरा छियासठ सागर है। विशेषार्थ - जो असंयतसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व के अभिमुख होता है और अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, उसके इन तीन सम्यग्ज्ञानोंमें चार वातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है। तथा वेदनीय आदि तीन कर्मोंका क्षपकश्रेणिमें बन्धके अन्तिम समय में उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए यहाँ उक्त सातों कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा है। तथा इन तीनों ज्ञानोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक छियासठ सागर है, इसलिए इनमें उक्त सातों कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक छियासठ सागर कहा है । यह प्ररूपणा सम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इन मार्गगाओं में भी पूर्वोक्त प्रकारसे ही काल कहा है । किन्तु इतना विशेष समझना चाहिए कि वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्टकाल पूरा छियासठ सागर ही है, इसलिए इसमें उक्त सातों कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्टकाल छियासठ सागर ही होता है। ६४. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अनुकृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है. अथवा वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल वही है। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जाननाचाहिए। चक्षुदर्शनी जीवोंमं त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । विशेषाथ- परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमं वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभाग For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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