SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कालपरूवणा ३१ वरि वेद० - णामा- गोदा० अणु० जह० अंतो०, सव्वेसिं उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । सगे कायजोगिभंगो । अवगद० सत्तण्णं क० उक्क० एग० । अणु० जह० एग०, उक्क अंतो० । एवं सुहृमसंप० छण्णं कम्माणं । ६१. कोधादि०४ घादि०४ मणजोगिभंगो । वेद०- गामा-गोदा० उक्क० एग० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । ६२. विभंगे वादि०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० देसू० । वेद ० णामा- गोदा० उक्क० एग० । अणु० णाणावरणभंगो | त्कृष्ट अनुभागवन्धका काल ज्ञानावरण के समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्त है तथा सबके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्टकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है । नपुंसक वेदी जीवोंमें काययोगी जीवोंके समान भंग है। अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके छह कर्मों का काल जानना चाहिए । विशेषार्थ — पुरुषवेदी जीव उपशमश्रेणी पर चढ़कर उतरते समय यदि मरकर देव होते हैं, तो भी पुरुषवेदी ही होते हैं । और नहीं मरते हैं, तो भी पुरुषवेदी ही होते हैं । यहाँ स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके समान एक समय काल उपलब्ध नहीं होता । अतः इनमें वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त कहा है । उपशमश्रेणी पर चढ़ाकर और उतारनेके वाद पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर उपशमश्रेणी पर आरोहण करानेसे यह काल उपलब्ध होता है । अपगतवेदी जीवोंमें उतरते समय अपगतवेद के अन्तिम समयमें चार वातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध सम्भव है । तथा वेदनीय आदि तीन कर्मोंका क्षपकश्रेणी में अपने वन्धके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है और अपगतवेदका जघन्यकाल एक समय व नौवें दसवें गुणस्थानके कालकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए अपगतवेद में सात कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय व अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । ६१. क्रोधादि चार कपायवाले जीवोंमें चार घातिकमोंका भंग मनोयोगी जीवोंके समान है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - क्रोधादि चार कपायवाले जीवोंमें वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है । अन्यत्र इनका निरन्तर अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता रहता है । किन्तु चारों कपायोंका जवन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय तथा अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। ६२. विभंगज्ञानी जीवों में चार घातिकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघ के समान हैं, अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका काल ज्ञानावरणके समान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy