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________________ २६ कालपरूवणा ८६. इंदि० - तेइं दि-चदुरिंदि ० तेसिं च पज्जत्ता० उक्क० गिरयभंगो । अणु० जह० उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एग, ८७. पंचिंदि० -तस०२ घादि०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक० सागरोवमसहस्सं पुव्वकोडिपुधत्तेणन्भहियं, बेसागरोत्रमसहस्सं पुव्वकोडिपुध० भहियं पज्जते सागरोवमसदपुध ० बेसाग० सह० । वेद० -गामा - गोदा० उक्क० ओघं । अणु ० जह० तो ० । उक्क० णाणावरणभंगो । ८८. पंचमण० - पंचवचि० सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० ० । कायजोगि० घादि०४ ओघं । वेद००-णामा-गोदा० उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० अणतका असंखे० । ओरालिय० वादि०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक० बावीसं वाससहस्साणि देसू० । वेद०-णामा-गोदा० उक्क० ओघं । 1 बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, इसलिए इनमें सात कर्मोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उक्त प्रमाण काल कहा है। इसी प्रकार आगे भी जिनकी जो काय स्थिति कही है, उसका विचार कर सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धका उत्कृष्ट काल जान लेना चाहिए। कोई विशेषता न होनेसे यहाँ उसका अलगसे निर्देश नहीं किया। शेष कथन सुगम है ८६. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल नारकियोंके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष है। ८७. पंचेन्द्रिय द्विक और सद्विक जीवोंमें चार वातिक्रम के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल के समान हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल क्रमसे पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर और पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है । किन्तु पर्याप्तकों में सौ सागर पृथक्त्व और दो हजार सागर है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल ज्ञानावरण के समान है । विशेषार्थ -- पञ्चेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकों की सौ सागर पृथक्त्व, जसकायिककी पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और कायिक पर्याप्तकोंकी दो हजार सागर है। इसीसे यहाँ इनमें चार घातिकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। इनमें वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपश्रेणिमें होता है । इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्टकाल ओघ के समान कहा है। शेष कथन सुगम है। I ८. पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल श्रोध के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । काययोगी जीवोंमें चार वातिकर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल आवके समान है । वेदनाय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल के समान है । तथा इन सबके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। दारिककाययोगी जीवोंमें चार वातिकमोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघ के समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल धके समान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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