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________________ २८ सा० । एवं सव्वदेवाणं श्रप्पप्पणो द्विदी णेदव्वा । ८५. एइंदिए सत्तणं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवं सव्वसुहुमाणं ओघं । पुढवी० आउ० -ते उ० - वाउ०फदि- णियोदाणं च ओघं । बादरएइंदि० सत्तण्णं क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंगुल • असंखें० ओसप्पिणि० उस्सप्पिणि० । बादरएइंदियपज्जत्ता० सत्तण्णं क० अणु० जह० एग०, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । एवं बादर० पुढ० - आउ० तेउ०वाउ ० - बादरवणफदिपत्तेय - णियोद० एदे सव्वे पज्जत्ता । बादरपुढवि ० ० आउ० तेउ०वाउ ० वणफदि ० - बादरवणप्फदिपत्ते ०. ० - बादर ० णिगोद ओघं । उक० कम्मदी ० ० । णवरि बादरवणप्फदि ० अंगुल ० असंखे | अणु० जह० एग०, महाबंध अणुभागबंधाहियारे अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब देवों अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । ५. एकेन्द्रियों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल असंख्यात लोक प्रमाण है । इसी प्रकार सब सूक्ष्म जीवों के काल एकेन्द्रिय के समान है । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें काल के समान है । बादर एकेन्द्रियोंमें सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं जो असंख्य ता संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके बराबर है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अमिकायिक, बादर घायुकायिक, वादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और निगोद इनके पर्याप्त जीवों के जानना चाहिये। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अमकायिक, वादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, वादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर निगोद जीवों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट अनु भागबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल कर्मस्थिति प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि बाद वनस्पतिकायिक जीवोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विशेषार्थ -- यद्यपि एकेन्द्रियोंका सामान्य उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है, पर यह काल सव अवान्तर भेदोंमें परिभ्रमण करनेकी अपेक्षा कहा है। सात कर्मोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सूक्ष्म एकेन्द्रियके होता है । बादरएकेन्द्रिय हो जाने पर पर्याप्त दशामें उसके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होना सम्भव है । इसीसे यहाँपर एकेन्द्रियके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्टकाल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट कायस्थिति उक्त प्रमाण है । एकेन्द्रिय सूक्ष्म और पाँचों स्थावरकायिक सूक्ष्म जीवोंकी यही कायस्थिि होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल भी यही कहा है । पाँचों स्थावरकायिक और निगोद जीवों में भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। अभिप्राय यह है कि पृथिवी आदि चारकी काय स्थिति असंख्यात लोकप्रमाण तो हैं ही, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंकी कायस्थिति भिन्न है, पर इनमें भी सूक्ष्म जीवोंकी अपेक्षा सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्टकाल एकेन्द्रियों के समान ही प्राप्त होता है, इसलिए इनमें भी एकेन्द्रिय ओधवत् काल कहा है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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