SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ فرعی کی گرمی کی بی بی کی ४२४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६३५. सासणे' धुवियाणं ज० अज० णत्थि अंतरं । पुरिस०-हस्स-रदितिरिक्व०३-ओरालि०-ओरालि०अंगो०-उज्जो० ज० पत्थि अंतरं । अन० ज० ए०, उ० अंतो०। तिण्णिआउ० मणजोगिभंगो। सेसाणं ज० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध उपशमश्रेणिमें अपनी-अपनी बन्धन्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा उपशमश्रेणिमें इनका कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त तक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। सातावेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और इनका एक समयके अन्तरसे जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। मनुष्यगति पञ्चकका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख देव और नारकी करते हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । पाठ कषाय और आहारकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध अन्तमुहूर्त के अन्तरसे ही सम्भव है तथा यथायोग्य गुणस्थान प्राप्त होने पर अन्तमुहूर्त काल तक इनका बन्ध नहीं होता, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। यहाँ उपशमसम्यक्त्वके कालमें यह अवस्था प्राप्त कर अन्तरकाल ले आना चाहिए। देवगतिचतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्व. के अभिमुख हुए तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकाल का निषेध किया है और उपशमश्रोणिमें बन्धव्युच्छित्तिके बाद उतर कर उसी स्थानके प्राप्त होने तक इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। ६३५.सासादनसम्यक्त्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यञ्चगतित्रिक, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गो. पाङ्ग और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तीन आयुओंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-सासादनसम्यक्त्वमें चारों गतिके सर्वविशुद्ध जीवके पाँच ज्ञानावरणादिका और चारों गतिके सर्वसंक्लिष्ट जीवके पश्चद्रियजाति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । पुरुषवेद आदिका जो जघन्य स्वामित्व बतलाया है, उसके अनुसार इनके जघन्य अनुभागबन्धका भी अन्तरकाल सम्भव नहीं है, इसलिए इसका निषेध किया है। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तीन आयुओंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है यह स्पष्ट ही है। तथा शेष प्रकृतियाँ परावतेमान है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। १. ता. प्रा. प्रत्योः प्रजा ज० उ. अंतो० । सासणे पंचणाणावरणादिद० एवं सव्वाणं उकस्सभंगो० सासणे इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy