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________________ अंतरपरूवण | ४२५ ६३६. सम्मामिच्छ० धुवियाणं ज० अज० णत्थि अंतरं । सादासाद ० - अरदिसोग-थिरादितिष्णियुग० ज० अ० ज० ए०, उ० अंतो० । हस्स- रदि० ज० त्थि अंतरं । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । मिच्छादिट्ठी० मदि०भंगो । ६३७. सणी० पंचिंदियपज्जत्तभंगो । असण्णीसु धुवियाणं पसत्थापसत्थपगदी ज० ज० ए०, उ० अनंतका० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । सत्तणोक०तिरिक्ख ०- पंचिदि ० --ओरालि ०-ओरालि० अंगो० - तिरिक्खाणु० - पर० -- उस्सा० - आदाउज्जो ० -तस०४ - णीचा० ज० ज० ए०, उ० अनंतका० । अज० ज० ए०, उ० तो ० ० । चदुआउ०- वेडव्वियछ० - मणुस ०३ तिरिक्खोघं । सेसाणं ज० ज० ए०, उ० श्रसंखेज्जा लोगा । ज० ज० ए०, उ० तो ० । ६३६. सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, और स्थिर आदि तीन युगलके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । हास्य और रतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागबन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मिध्यादृष्टि जीवों का भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । विशेषार्थ - जिस प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालके निषेधका कारण बतलाया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए, क्योंकि इनमेंसे अप्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख जीवके और प्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व मिथ्यात्व के अभिमुख जीवके होता है । सातावेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और इनका जघन्य अनुभागबन्ध एक समय के अन्तर से हो सकता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । हास्य और रतिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके श्रभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्ध के अन्तरकालका निषेध किया है । तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तरमुहूर्त कहा है । मिध्यात्व मत्यज्ञानीके ही होता है और प्रायः इनका साहचर्य है, अतः मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा मत्यज्ञानी जीवोंके समान कही है । ६३७. संज्ञी जीवों में पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । असंज्ञी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, पश्चद्रियजाति, श्रदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तियचगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग सामान्य तिर्यों के समान है। शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । विशेषार्थ — पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध पञ्चन्द्रिय जीव और ૧૪ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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