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________________ अंतरपरूषणा ४२३ ६३४. उवसम० पंचणा० - इदंसणा० - चदुसंज० -- पंचणोक०--पंचिंदि० - तेजा ०क० - समचदु०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु० [ ४ ] पसत्यवि० -तस०४ - सुभग--सुस्सरआदें - णिमि० उच्चा० - पंचत० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । सादासाद ० -- अरदि-सोग० - तिण्णियुग० - तित्थ० ज० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । मणुसगदिपंचग० ज० अज० णत्थि अंतरं । अट्ठक० - आहारदुगं० ज० अ० ज० उ० तो० | देवगदि०४ ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० उ० तो ० । विशेपार्थ - जो श्रप्रमत्तसंयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त में क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर क्षपकश्रेणि पर आरोहण करनेवाला है, वह सर्वविशुद्ध होकर पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध करता है । यह अवस्था पुनः प्राप्त होना सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। और इनका जघन्य अनुभागबन्ध एक समय तक होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है । वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल छियासठ सागर है, इसलिए यहाँ सातावेदनीय आदिके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर कहा है। इसी प्रकार आठ कषायों के जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर घटित कर लेना चाहिये । हास्य और रतिके जघन्य अनुभागबन्ध के अन्तर के निषेधका वही कारण है जो पाँच ज्ञानावरणादि के कह आये हैं। दो आयुओंके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर जो कुछ कम छियासठ सागर कहा है सो इसका कारण यह है कि जो देव या मनुष्य क्रमसे वेदकसम्यक्त्वके श्रारम्भ होनेपर मनुष्यायु और देवायुका जघन्य अनुभागबन्ध करता है । पुनः उसकी समाप्तिके पूर्व इनका जघन्य अनुभागबन्ध करता है, उसके इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण ही देखा जाता है। तथा इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर जिस प्रकार श्रभिनिबोधिक ज्ञानीके स्पष्ट कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । मनुष्यगति पञ्चक और देवगतिचतुष्कके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर भी अभिनिबोधिक ज्ञानियों के समान यहाँ घटित कर लेना चाहिए। मात्र वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणि पर श्रारोह नहीं करते, इसलिए इनके देवगतिचतुष्कके अजवन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तन होकर साधिक एक पल्य जानना चाहिए । और उत्कृष्ट अन्तर पूरा तेतीस सागर जानना चाहिए । पञ्च ेन्द्रियजाति आदिका जवन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्व के अभिमुख होने पर होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके धन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है। ६३४. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णंचतुष्क, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रमचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, रति, शोक, तीन युगल और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है । आठ कषाय और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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