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________________ ४२२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६३३. वेदगे धुविगाणं ज० णत्थि अंतरं । अज० एग० । सादादिचदुयुग०अरदि-सोग० ज० ज० ए०, उ० छावहि० देसू० । अज० अोघं । अहक० ज० ज० अंतो०, उ० छावहि० दे० । अज० [ ओघं । ] हस्स-रदि० ज० णत्थि अंतरं । अज० ओघं । दोआउ० ज० ज० ए०, उ० छावहि० दे० । अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । मणुसगदिपंचग० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० वासपुध०, उ० पुव्वकोडी० । देवगदि०४ ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० पलिदो० सादि०, उ० तेत्तीसं । पंचिंदि०तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-सुभग-मुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थ०उच्चा० ज० अज० णत्थि अंतरं । अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। जो पूर्वकोटिकी आयुवाला त्रिभागके प्रारम्भमें देवायुका बन्ध करके पुनः अन्तमें अन्तमुहूर्त आयु शेष रहने पर उसका बन्ध करता है, उसके देवायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण दिखाई देता है, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है । तथा मनुष्यगतिपञ्चकका जघन्य अनुभागबन्ध देव करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । देवगतिचतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध करके कोई मनुष्य सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँ से आकर मनुष्य होने पर उसने इनका जघन्य अनुभागबन्ध किया, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। आहारकद्विकका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध करके कोई प्रमत्तसंयत हो गया। पुनः उसके अप्रमत्तसंयत होकर आहारकद्विकका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध करने में अन्तः ल लगता है, इसलिए तो इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। और यदि ऐसा जीव देवोंमें उत्पन्न हो जावे तो साधिक तेतीस सागर अन्तर होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ! ६३३. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । सातावेदनीय आदि चार युगल, अरति और शोकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। आठ कषायोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है । हास्य और रतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है । दो आयुओंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि है । देवगतिचतुष्क के जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर तेतीस सागर है। पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निमोण, तीर्थदर और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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