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________________ ४१२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे चदुसंठा-पंचसंघ० ज० ज० ए०, उ० तेतीसं० सादि०, णिग्गदस्स सादि० । अज० णqसगभंगो। हुंड --अप्पसत्थ०-दूभग--दुस्सर--अणादें ज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० दोहि मुहुत्ते । अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । तित्थ० ज० अज० णत्थि अंतरं। अगुरुलघु और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर पञ्चन्द्रियजातिके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। चार संस्थान और पाँच संहननके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। यह साधिक निकले हुए जीवके होता है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नपुंसकवेदके समान है। हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो मुहर्त अधिक तेतीस सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टि नारकीके होता है। ये परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरके अन्तरसे हो सकते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तथा इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका जघन्य बन्ध काल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल दो समय है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। स्त्यानगृद्धि आदि तीन का जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख नारकीके होता है । तथा इसके सम्यक्त्व का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, अत: यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । मात्र जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर लाते समय मिथ्यात्वमें ले जाकर विवक्षित कालके भीतर पुनः सम्यक्त्वके सन्मुख ले जाकर यह अन्तर कहना चाहिए। सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध तीन गतिके जीवोंके परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है । ये परिणाम एक समयके अन्तरसे भी सम्भव हैं और जो कृष्णलेश्याके सद्भावमें सातवें नरकमें जाता है उसके नरकमें प्रवेश करने पर प्रारम्भमें सम्भव हैं और नरकसे निकलने पर अन्तमुहूर्तके बाद भी सम्भव हैं, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूतें कहा है। असातावेदनीय आदिका भङ्ग इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र यहाँ द अधिक कहना चाहिए। एक प्रवेशके पूर्वका और एक निर्गमके बादका । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामोंसे और उद्योतका जघन्य अनुभागबन्ध संक्लिष्ट परिणामोंसे होता है। ये परिणाम एक समयके अन्तरसे भी सम्भव हैं और नारकीके प्रारम्भमें होकर मध्यमें न हों और अन्तमें हों, यह भी सम्भव है । तथा सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है ] पाँच नोकषायोंका सर्वविशुद्ध परिणामोंसे और औदारिकद्विकका सर्वसंक्लिष्ट परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है। नारकीके ये परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरके अन्तरसे होते हैं, अतः यहाँ इनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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