SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंतरपणा जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान कहा है । नरका और देवायुका बन्ध मनुष्य और तिर्यञ्चके होता है और इनके कृष्णलेश्या का उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए इनके दो आयुओं का भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान कहा है । शेष दो आयुका जघन्य अनुभागबन्ध भी मनुष्य और तिर्यञ्चके होता है, इसलिए इ जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । तथा इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और नारकियोंमें उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है, यह स्पष्ट ही है। नरकगति आदिका बन्ध मनुष्य और तिर्यञ्चके ही होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त कहा है । तिर्यञ्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्व के अभिमुख नारकी के होता है और ऐसा जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर पुनः सम्यक्त्वके सन्मुख अन्तर्मुहूर्त से पहले नहीं हो सकता, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा मनुष्य और तिर्यञ्चके ये परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और नरकमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। इतने काल तक इनका बन्ध नहीं होता। इसके बाद मिध्यात्व में इनका अजघन्य अनुभागबन्ध या मिध्यात्वसे पुनः सम्यक्त्वके सन्मुख होने पर जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनु भागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा | मनुष्यगति आदिका तीनों गतिके जीव परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं। ये परिणाम एक समय के अन्तर से भी होते हैं और छठे नरक में प्रवेश करनेके बाद होकर वहाँ से निकलने पर अन्तर्मुहूर्त में हों, यह सम्भव है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागर कहा है । यद्यपि मनुष्यगति आदिका सातवें नरकमें भी बन्ध होता है, पर वहाँ यह सम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए वहाँ जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव न होने से यह छठे नरककी अपेक्षा कहा है। ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और जो सातवें नरकका नारकी प्रारम्भमें और अन्तमें Jain Education International ४१३ मुहूर्त काल के लिए सम्यग्दृष्टि होता है और मध्य में कुछ कम तेतीस सागर काल तक मिथ्यारहता है, उसके इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होने से वह उक्त प्रमाण कहा है। पश्च ेन्द्रियजाति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सर्व संक्लिष्ट तीन गतिके जीव करते हैं । यह एक समय के अन्तर से भी सम्भव है और नरकमें प्रवेश करनेके बाद होकर वहाँ से निकलने पर अन्तर्मुहूर्तके बाद भी सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर कहा है । तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। वैक्रियिकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध तिर्यञ्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तथा नरकमें जानेके पूर्व किसीने इनका बन्ध किया और छठे नरकसे सम्यक्त्वके साथ निकलकर इनका पुनः बन्ध करने लगा यह सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर कहा है । यहाँ एक समय अन्तर परावर्तमान प्रकृति होनेसे प्राप्त करना चाहिए। तैजसशरीर आदिका जघन्य स्वामित्व पञ्चेन्द्रियजातिके समान है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर पञ्चन्द्रिय जातिके समान कहा है। तथा इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जवन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy