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________________ ४१० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अज० ज० उ० अंतो० । ६२६. चक्खुदं० तस०पज्जत्तभंगो । अचक्खुदं० ओघं । ओघिदं० ओधिणाणिभंगो। ६२७. किण्णाए पंचणा०-छदसणा०--बारसक०-भय-दु०-अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० ज० ज० एग०, उ० तेत्तीसं० दे० । अज० ज० ए०, उ० बेस० । थीणगिद्धि०३ मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० अज० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । सादा०-समचदु०वजरि०-पसत्थ०--थिरादिछ० ज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि०, एक्केण अंतोमुहुत्तेण सादिरेयं णिरयादो णिग्गदस्स । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । असादावेद०औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध संयमके अभिमुख होने पर होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। स्त्यानगृद्धितीन आदिके जघन्य अनुभागका बन्ध संयमके सन्मुख होने पर होता है. इसलिए इनके भी जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। असंयतके नरकमें कुछ कम तेतीस सागर तक सम्यग्दर्शनके साथ रहते हुए तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद आदिके जघन्य अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालका स्पष्टीकरण ओघके समान यहाँ भी कर लेना चाहिए । तथा इनका सम्यग्दृष्टि नारकीके कुछ कम तेतीस सागर काल तक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। नारकी जीव नरकमें और वहाँ जानेके पूर्व अन्तमुहूर्त काल तक और निकलनेके बाद अन्तमुहूर्त काल तक चार जाति आदिका बन्ध नहीं करता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। मिथ्यात्वके अभिमुख हुआ सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभाग बन्ध करता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागवन्धके अन्तरकालका निषेध किया है और ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि होकर अन्तमुहूर्त काल तक मिथ्यात्वके साथ रहता हुआ उसका बन्ध नहीं करता, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६२६. चक्षुदर्शनी जीवोंमें सपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। अचक्षुदर्शनी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। तथा अवधिदर्शनी जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। ६२७. कृष्णलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । सातावेदनीय, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदि छहके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । नरकसे निकलनेवाले जीवके यह अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त अधिक है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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