SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६२४. सामाइ०-छेदोव० धुविगाणं० ज० अज० णत्थिं अंतरं । सेसाणं मणपज्जवभंगो । परिहारे पंचणा०-छदसणा०-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दु०-अप्पसत्थ०४उप०-पंचंत० ज० पत्थि अंतरं । अज० ए० । अथवा ज० ज० ए०, उ० पुवकोडी दे। अज० ज० ए०, उ० बेसम० । देवगदिपसत्थपणवीसं ज. अज. पत्थि अंतरं । सेसाणं मणपज्जव० भंगो। सुहुमे सव्वाणं ज० अज० णत्थि अंतरं । संजदासंजदे धुविगाणं ज० अज० णत्थि अंतरं । सेसाणं परिहार भंगो। नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। यह सम्भव है कि सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध प्रारम्भमें और अन्तमें हो, मध्यमें न हो, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। हास्य और रतिका क्षपकश्रेणिमें जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभाग के अन्तरका निषेध किया है। इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। यह स्पष्ट ही है। देवायुका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध विभागके प्रारम्भमें और अन्तिम अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर हो यह सम्भव है, अतः इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण कहा है । आहारकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध अन्तमुहूर्त के अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम एक पूर्वकोटिके अन्तरसे सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध अन्तमुहूर्तके अन्तरसे ही होता है, क्योंकि सातवेंसे छठेमें आने पर पुनः सातवाँ गुणस्थान एक अन्तमुहूर्त के बाद प्राप्त होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमु हूते कहा है। संयत जीवोंके अन्तर प्ररूपणामें इस प्ररूपणासे कोई विशेषता नहीं है, इसलिए उनके कथनको मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान कहा है। ६२४. सामायिकसंयत और छेदोपस्थानसंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । शेप प्रकृतियोंका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवोमें पाँच ज्ञानावरण, बह दशनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। अथवा जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । देवगति और प्रशस्त पच्चीस प्रकृतियों के जघन्य और अजयन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियोंका मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। सूक्ष्म साम्परायिकसंयत जीवोंमें सब प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। संयतासंयत जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्धका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। विशेषार्थ-सामायिक और छेदोपस्थानासंयम नौवें गुणस्थानतक होते हैं। आगे संयम बदल जाता है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरके समान अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके पाँच १. ता० प्रा० प्रत्योः अज० ज० णस्थि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy