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________________ अन्तरपरूवरणा ४०७ ६२३. मणपज्जवे पंचणाo--छदंसणा०-चदुसंज०--पुरिस०-भय-दु०--देवगदिपंचिंदि०-वेउव्वि--तेजा-क०-समचदु०--बेउवि०अंगो०--पसत्थापसत्थ०४-देवाणु०अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग--सुस्सर-आदें--णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० ज० णत्थि० अतरं । अज० ज०० अंतो० । सादासाद०-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभजस०-अजस० ज० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी देसू० । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । हस्स-रदि० ज० णत्थि अंतरं । अज० सादभंगो । देवाउ० ज० अज० ज० ए०, उ० पुवकोडी तिभागा देसू० । आहारदुग० ज० ज० अंतो०, उ० पुवकोडी दे० । अज० ज० उ० अंतो० । एवं संजदा० । चतुष्ककी बन्ध व्युच्छित्तिकर उतरते समय पुनः उनका बन्ध होनेमें अन्तमुहूर्तकाल लगता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है और उपशमश्रोणिमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति कर और उतरते समय इनका बन्ध होनेके पूर्व मर कर तेतीस सागरकी आयुवाले देव होने पर इनका साधिक तेतीस सागर काल तक बन्ध नहीं होता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर' कहा है। आहारकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अभिमुख हुए जीवके होता है, अतः यह अवस्था अन्तमुहूर्तके बाद पुनः प्राप्त हो सकती है। अत: इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है।और यदि आहारकद्विकका बन्ध करनेवाला जीव मर कर तेतीस सागरकी आयुवाला देव हुआ, तथा वहाँ से च्युत होकर जब संयमको ग्रहण कर पुनः आहारकद्विकका बन्ध करता है,तब इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। यतः यह काल साधिक तेतीस सागर है. अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ६२३. मनःपर्ययज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चोन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्तिके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । हास्य और रतिके जघन्य अनुभागवन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। देवायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है। आहारकद्विकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार संयतोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई अप्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें और शेषका असंयमके अभिमुख होने पर जघन्य अनुभागबन्ध होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इनका उपशमश्रेणिमें अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध १. प्रा. प्रती ज० ए० उ० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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