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________________ ४०४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे छस्संठा • --ओरालि० अंगो० - इस्संघ० पर ०-- उस्सा ० -- उज्जो ० -- दोविहा ० --तस०४थिरादिछयु० ज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । पुरिस०-हस्स-रदि-तिरिक्ख ०३ ज० णत्थि अंतरं । अज० सादभंगो । णिरय-देवायु० मणजोगिभंगो । दोआउ० ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० छम्मासं देसू० । दोगदि- तिण्णिजादि- दोश्राणु० - मुहुम-अपज्ज० - साधार० ज० अज० ज० ए०, उ० तो ० । मणुस ० - मणुसाणु० ज० ज० ए०, उ० बावीसं० । अज० सादभंगो' । एइंदि [० - आदाव थावर० ज ज० ए०, उ० बेसाग० सादि० । अज० ज० ए०, उ० तो ० ० । वेडव्वि० - वेडव्वि ० अंगो० देवगदिभंगो | तेजा ० क ० पसत्थ०४ - अगु० - णिमि० 1 ज० ज० ए०, उ० तैंतीसं० दे० । अज० ज० ए०, उ० बेस० । उच्चा० ज० ज० ए०, उ० ऍकतीसं ० सू० । अज० सादभंगो । श्रदारिकशरीर, छह संस्थान, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसचतुष्क और स्थिर आदि छह युगल के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, हास्य, रति और तिर्यञ्चगतिकिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीय के समान है। नरका और देवायुका भङ्ग मनोयोगी जीवों के समान है। दो आयुओं के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । दो गति, तीन जाति, दो श्रनुपूर्वी सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीय के समान है। एकेन्द्रियजाति, श्रातप और स्थावर के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग देवगतिके समान है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । उच्चगोत्र के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध संयम के श्रभिमुख होने पर होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है । विभङ्गज्ञानके प्रारम्भमें और अन्तमें सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । तैजसशरीर आदिके जघन्य अनु १. ता० प्रतौ बावीसं । [ दोश्रा० जह०] सादभंगो, श्रा० प्रतौ बावीसं । दोश्राउ० ज० सादभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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