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________________ ४०५ अन्तरपरूवणा ६२२. आभि०--सुद--ओधि० पंचणा०--छदसणा०--चदुसंज०--पंचणोक०-- पंचिंदि०--तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्थ०--तस०४-सुभगसुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० ए०, [णिद्द-पचला. ज. अंतो० ] उ० अंतो० । सादासाद०--अरदि-सोग-थिराथिरसुभासुभ-जस०-अजस० ज० ज० ए०, उ० छावहि० सादि० । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । अहक० ज० ज० अंतो०, उ० छावहि० सादि० । अज० ओघं । मणुसाउ० ज० ज० ए०, उ० छावहि० सादि०। अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । देवाउ० ज० ज० ए०, उ० छावहि. देसू० । अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं भागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । तथा सातावेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहतं कहा है। पुरुषवंद आदिका जघन्य अनुभागबन्ध यथायोग्य संयम और सम्यक्त्वक अभिमुख होनेपर होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है । दो गति आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और इनका जघन्य अनुभागबन्ध एक समयके अन्तरसे सम्भव है, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। मनुष्यगतिद्विकका बन्ध सातवें नरकमें नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर कहा है, क्योंकि छठे नरकमें विभङ्गज्ञानका उत्कृष्ट काल इतना ही है। एकेन्द्रियजाति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सौधर्म-ऐशान कल्पमें होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । उच्चगोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध नौवें वेयकमें सम्भव है, अतः इसके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६२२. आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण. चार संज्वलन. पाँच नोकषाय. पश्चन्द्रियजाति. तैजसशरीर, कार्मणशरीर, सम संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, किन्तु निद्रा, प्रचलाका अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश कीर्ति और अयश कीर्तिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषायोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिकछियासठ सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। मनुष्यायुके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। देवायुके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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