SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तर परूवणा ४०३ णिमि० ज० ओघं । अज० ज० ए०, उ० बेस० । पंचसंठा० - पंच संघ० - अप्पसत्थ०दूर्भाग- दुस्सर - यणादे० ज० श्रघं । अज० ज० ए०, उ० तिष्णि पलि० देसू० | उज्जो० ज० श्रघं । अज० ज० ए०, उ० ऍक्कतीसं ० सादि० । णीचा० ज० णत्थि अंतरं । अ० ज० ए०, उ० तिणि पलि० सू० । ६२१. विभंगे पंचणा० णवदंसणा०-मिच्छ०- सोलसक० भय०-दु००-अप्पसत्थ०४उप० पंचंत० ज० अज० णत्थि अंतरं । सादासाद ० चदुणोक० पंचिंदि०-ओरालिं० प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओधके समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर और अनादेयके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर के समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघ के समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । नीचगोत्र के जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली जिन प्रकृतियोंका प्रथम दण्डकमें ग्रहण किया है, उनका जघन्य अनुभागबन्ध यहाँ संयम के अभिमुख हुए जीवके होता है। अतः उनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। स्त्रीवेद आदिका जघन्य अनुभागबन्ध एक समय के अन्तर से भी सम्भव है और यदि ऐसा जीव अनन्तकाल तक एकेन्द्रिय पर्याय में परिभ्रमण करता रहे तो उतने कालके अन्तरसे भी सम्भव है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जवन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है । तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तरन्तमुहूर्त कहा है । पुरुषवेद आदिका जघन्य अनुभागबन्ध संयम अभिमुख हुए जीवके होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीच गोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्व के अभिमुख हुए सातवें नरक में होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है । मात्र तिर्यञ्चगतिद्विकका नौवें ग्रैवेयक में इकतीस सागर तक और आगे-पीछे अन्तर्मुहूर्त तक बन्ध नहीं होता, इसलिए इन दोके श्रजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर कहा है। तथा नीचगोत्रका बन्ध उत्तम भोगभूमि में कुछ कम तीन पल्य तक नहीं होता, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। इसी प्रकार नपुंसकवेद, चार जाति आदि, श्रदारिकद्विक और पाँच संस्थान श्रादिके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य घटित कर लेना चाहिए। तथा उद्योतके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर तिर्यगतिद्विकके समान घटित कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है । ६२१. विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, पश्चेन्द्रियजाति, १. श्रा० प्रतौ चदुणोक० श्रोरालि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy