SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६१६. लोभे पंचणा०-सत्तदंसणा०-मिच्छ०-बारसक०--आहारदुग-पंचंत० ज० अज० णत्थि अंतरं । णवरि चदुसंजलणाणं अज० ज० ए०, उ. अंतो० । सेसाणं सव्वपगदीणं कोधभंगो। ६२०. मदि-सुद० पंचणाणावरणादिधुविगाणं ज० अज० पत्थि अंतरं । सादादिदंडो ओघो । इत्थि०-अरदि-सोग--पंचिं०--पर०-उस्सा--तस०४ ज० ज० ए०, उ. अणंतका० । अज० ज० ए०, उ. अंतो० । पुरिस०-हस्स-रदि० ज० णत्यि अंतरं । अज० सादभंगो। चदुआउ०--बेउव्वियछ०--मणुस०३ ज० अज० ओघं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु० ज० णत्थि अंतरं। अज० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० सादि० । णस० ज० ओघं । अज० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि०दे० । चदुजादि-आदावथावरादि०४ ज० ओघं। अज० णqसगभंगो। ओरालि०-ओरालि०अंगो० ज० ओघं । अज० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० दे० । तेजा०-क०-पसत्थवण्ण४-अगु० लगता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६१६. लोभकषायमें पाँच ज्ञानावरण, सात दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, आहारकद्विक और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनोंके अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । शेष सब प्रकृतियोंका भङ्ग क्रोधकषायके समान है। विशेषार्थ-लोभकषायके उदयकालमें चारों संज्वलनोंकी बन्धव्युच्छित्ति होकर एक समय या अन्तमुहूर्तके अन्तरसे मर कर इस कषायवाले जीवके देव होने पर पुनः बन्ध होने लगता है. अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६२०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके. जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेद, अरति, शोक, पञ्चोन्द्रियजाति, परघात, उच्छवास और त्रसचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । पुरुषवेद, हास्य, और रतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है । चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकके जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्धका अन्तर ओघके समान है। तिर्यश्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके स है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नपुंसकवेदके समान है। औदारिकशरीर और औदारिक श्राङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy