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________________ ३६४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६११. आहारका पंचणाणावरणादिधुवियाणं ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । सेसाणं मणजोगिभंगो। आहारमि० धुविगाणं देवायु०तित्थय० ज० अज० पत्थि अंतरं । सेसाणं आहारकायजोगिभंगो। कम्मइगे सव्वाणं उक्कस्सभंगो। ६१२. इत्थिवेदेसु पंचणा०-छदंसणा०--चदुसंज०-भय--दु०--अप्पसत्थ०४उप०-तित्थ०-पंचंत० ज० अज० णत्थि अंतरं। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० ज० अंतो०, उ० कायहिदी। अज० ज० अंतो०, उ. पणवण्णं पलि० दे० । सादासाद०--अरदि-सोग-पंचिं०-समचदु०-पर०--उस्सा०--पसत्थ०--तस४-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-जस०-अजस०-उच्चा० ज० ज० ए०, उ० कायहिदी। जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-ध्रुवबन्धवाली और तीर्थङ्कर प्रकृति इनका जघन्य अनुभागबन्ध वैक्रियिकमिश्रकाययोगके अन्तमें होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है और इसी कारण पुरुषवेद आदिके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका भी निषेध किया है। किन्तु ये पुरुषवेद आदि परावर्तमान और अध्रवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। और इसी कारण शेष सातादि प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उक्त प्रकारसे अन्तर कहा है। ६११. आहारककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली, देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग आहारककाययोगी जीवोंके समान है : कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्ट के समान है। विशेषार्थ-आहारककाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका बन्ध स्वामित्वको देखते हुए इस योगके काल में दो बार बन्ध सम्भव है और इस योगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। शेष प्रकृतियोंकी सब विशेषताएँ मनोयोगके समान होनेसे उनका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान कहा है। आहारकमिश्रकाययोगमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका, देवायु और तीर्थङ्करका अपने-अपने परिणामोंके अनुसार जघन्य अनुभागबन्ध अन्तिम समयमें होता है, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका निषेध किया है। शेष कयन स्पष्ट ही है। ६.२. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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