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________________ ३८८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६०४. तस-तसपज्जत. पंचिंदियभंगो। णवरि अप्पप्पणो कायहिदी भाणिदव्वा । ६०५.पंचमण०-पंचवचि० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-०९०अप्पसत्य०४-आहारदुग०-उप०--तित्थ०--पंचंत० ज० अज० णत्थि० अंतरं । सादासाद०-चदुणोक-तिगदि--पंचजादि-दोसरीर--छस्संठा--दोअंगो०- छस्संघ-तिण्णिआणु०--पर०-उस्सा०-आदावुज्जो०-दोविहा०-तस-थावरादिदसयुग०-उच्चा० ज० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । पुरिस०--हस्स-रदि--तिरिक्ख०३ ज० णत्थि अंतरं । अज. ज० ए०, उ० अंतो० । चदुआउ० ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० चदुसमयं । तेजा-क०-पसत्थवण्ण४-अगु०-णिमि० ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० बेस । ~ कि उनके मनुष्यगतिद्विक व ऊँचगोत्रका बन्ध नहीं होता है। इस कारण उनके तिर्यञ्चगतिद्विक व नीचगोत्र ध्रुवबन्धिनी हैं। सामान्य वनस्पतिकायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध बादरोंके होता है और उनका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है और शेष अवान्तर भेदोंमें अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण अन्तर उपरोक्त रूपसे होता है। अतः जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर घटित हो जाता है। अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरके सम्बन्ध जो पूर्वमें लिखा है, वही यहाँ पर भी विचार कर लेना चाहिये। वनस्पतिकायिक जीवोंके पूर्वके कथनमें बादर प्रत्येक व बादर निगोदका भङ्ग नहीं आया था, वह अविकल रूपसे पृथिवीकायिक जीवोंके समान घटित हो जाता है । जो विशेषता है वह मूल में खोल दी गई है। ६०४. बस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें पञ्चन्द्रियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी कायस्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-पहले पञ्चेन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल कह आये हैं। यहाँ भी वह उसी प्रकार जानना चाहिए। मात्र वहाँ जो अन्तर उनकी कायस्थिति प्रमाण कहा हो, उसे यहाँ इनकी कायस्थितिप्रमाण जानना चाहिए। ६०५. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, आहारकद्विक, उपघात, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, तीन गति, पाँच जाति, दो शरीर, छह संस्थान, दो प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, पातप, उद्योत, दो विहायोगति, बस-स्थावर दस युगल और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेद, हास्य, रति और तिर्यञ्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागबन्ध का अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। चार आयुओंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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