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________________ अन्तरपरूवणा ३८६ ६०६. कायजोगीसु पंचणा०--छदसणा०--चदुसंज०--पंचणोक०--तिरिक्ख०अप्पसत्य०४-तिरिक्वाणु०-उप०-तित्थ०--णीचा०-पंचंत० ज० णत्यि अंतरं । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०--बारसके०-आहारदुर्ग ज. अज. पत्थि अंतरं । सादासाद.--चदुजादि--छस्संठा०--छस्संघ०--दोविहा०-थावरादि४थिरादिछयुग० ज० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । इत्थि०-णqस०-अरदि-सोग-णिरय--देवगदि-पंचिंदि०-ओरालि वेउन्वि०-तेजा-क०दोअंगो०--पसत्थ०४-दोआणु०--अगु०३-आदावुज्जो०--तस४-णिमि० ज० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । णिरय-देवायु० ज० अज० मणभंगो ।तिरिक्खाउ० ज० ज० ए, उ० असंखेंजा लोगा । अज० ज० ए०, उ० बावीसं वाससह. सादि०। मणुसायु० विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामित्व देखनेसे विदित होता है कि यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ उसका निषेध किया है। सातावेदनीय आदि एक तो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और दूसरे इन योगोंका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। पुरुषवेद, हास्य और रतिका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें तथा तिर्यञ्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके सम्मुख हुए सातवें नरकके जीवके होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है,यह स्पष्ट ही है। इन योगोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है, इसलिए दो त्रिभागोंकी यहाँ प्राप्ति सम्भव नहीं है, अतः यहाँ चारों आयुओंके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर चार समय कहा है। तैजसशरीर आदिके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त होनेका कारण इन योगोंका: काल ही है। ६०६. काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, तीर्थङ्कर, नीचगोत्र और पाँच अन्त रायके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय और आहारक द्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगल के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । नरकायु और देवायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। तिर्यश्चायुके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका १. सा. प्रा. प्रत्योः चदुदंसणा इति पाठः। २. ता. श्री. प्रत्योः बारसकसाय३ इति पाठः । ३. ता. श्रा० प्रत्योः ज. अज० ए० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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