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________________ अन्तरपरूवणा ३८७ ● 1 ६०३. पुढवि०[० आउ० धुविगाणं ज० ज० ए०, उ० सव्वेसिं अष्पष्पणो कायद्विदी० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । सेसाणं ज० णाणा ०३ ० भुंगो | अज० ज० ए०, उ० अंतो० । दोआउ० ज० अज० ज० ए०, उ० पगदिअंतरं । एवं तेउ०atro | वरि तिरिक्खगदि ०३ धुवभंगो । वणप्फदि० धुवियाणं ज० ज० ए०, उ० असंखेंज्जा लोगा, अंगुल० असं०, संखेंज्जाणि बाससह ०, असंखेज्जा लोगा । अज० ज० ज० ए०, उ० बेसम० । सेसाणं ज० णाणाभंगो । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । तिरिक्खायु० ज० णाणा ०२ ० भंगो | अज० पगदिअंतरं । मणुसाउ० ज० अजे० उक्कर - भंगो । बादरपत्तेय० पुढवि०भंगो । णियोदे धुवियाणं सेसाणं पुढविभंगो । नवरि दोआयु० ज० अज० अपज्जतभंगो | । ६०३. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें ध्रुबबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सबके अपनी-अपनी कार्यस्थिति प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो आयुओं के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग ध्रुव प्रकृतियोंके समान कहना चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण हैं। बादरों में अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर पर्याप्तकों में संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मों में असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान है । अजधन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यश्वायुके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर उत्कृष्ट प्ररूपणा के समान है । बादर प्रत्येकवनस्पतिकायक जीवों का भङ्ग पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। बादर निगोद जीवों में ध्रुवबन्धवाली और शेप प्रकृतियोंका भङ्ग पृथिवीकायिक जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि दो आयुओं के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर अपर्याप्त जीवोंके समान है। 1 विशेषार्थ - पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंकी और उनके अवान्तर भेदोंकी जो स्थिति है उसके दिमें और अन्तमें दो आयुको छोड़कर सब प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध हो यह सम्भव है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अपनीअपनी कार्यस्थितिप्रमाण कहा है। ध्रुवबंधनेवाली प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर जघन्य अनुभागबन्धके काल की अपेक्षा कहा है और शेष प्रकृतियाँ परिवर्तमान होने के कारण उनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर एक समय व अन्तर्मुहूर्त घटित हो जाता | अग्निकायिक व वायुकायिक जीवों में भी यही भङ्ग अविकल रूपसे घटित हो जाता है । मात्र उनमें यह विशेषता है १. ता० प्रा० प्रत्योः मनुसाउ० एइंदिय० तिरिणकायणियोदाणं च ज० ज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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