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________________ ३५६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हिदी। अज० ओघ । मणुस०३-देवगदि०४ ज० ज० ए०, उ. कायद्विदी। अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वजरि० ज० अज० उ०भंगो । आहारदुग० ज० अज० ज० अंतो०, उ० कायहिदी। rmeram अन्तर ओघके समान है। मनुष्यगतित्रिक और देवगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। औदारिकशरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराचसंहननके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकोणिमें होता है। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए सम्यग्दृष्टि मनुष्यके होता है,अतः यह सब अवस्था पुनः सम्भव नहीं है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । स्त्यानगृद्धि आदिका बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता । एक तो सम्यस्यक्त्वका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, दूसरे इसकी प्राप्ति कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें होना सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें हो यह सम्भव है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। आठ कषायोंका जघन्य अनुभागबन्ध संयमके सन्मुख हुए क्रमशः सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतके होता है। यह अवस्था अन्तमुहूर्त और कुछ कम कायस्थितिके अन्तरसे प्राप्त हो सकती है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। यद्यपि स्वामित्वको देखते हुए नपुंसकवेद आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल उत्कृष्ट प्ररूपणाके समान बन जाता है, परन्तु नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामित्व सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सातवें नरकके नारकीके होने के कारण यहाँ इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है, क्योंकि इतने अन्तरके बिना पुन: उस अवस्थाकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । तिर्यश्चगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध सातवें नरकमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए नारकीके और उद्योतका जघन्य अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले देव नारकीके होता है । यह स्वामित्व कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कायस्थितिके अन्तर से प्राप्त होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण कहा है। मनुष्यगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है। ये परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम कायस्थितिके अन्तरसे हो सकते हैं, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण कहा है। तथा सातवें नरकमें और वहाँ से निकलने और प्रवेश करनेके समय अन्तर्मुहूर्त तक इनका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। आहारकद्विकका बन्ध अन्तर्मुहूर्त और कुछ कम कायस्थितिके अन्तरसें होना सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। शेष विवेचन जो ओघके समान हो उसे मोघ प्ररूपणा देखकर और जो उत्कृष्टके समान हो उसे उत्कृष्ट प्ररूपणा देखकर घटित कर लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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