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________________ अन्तरपरूवणा ३८५ ६०२. पंचिंदि० तेसिं पज्ज० पंचणा०-छदंसणा०--चदुसंज०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-तित्थ०पंचंत०] ज० णत्थि अंतरं । अज० ओघं । थीणगिदि०३मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० ज० अंतो०, उ० कायहिदी० । अज० ओघं । सादासाद० अरदि-सोग०-पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४थिराथिर०-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-जस०-अजस-णिमि० ज० ज० ए०, उ० कायहिदी० । अज० ओघं । अढक० ज० ज० अंतो०, उ० कायहिदी० । अज० ओघं । इत्थि० ज० अज० उक०भंगो० । णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०दृभग-दुस्सर-अणादें-णीचा. ज. अज० उक्क भंगो। णवरि णीचागो० ज० ज० अंतो० । चदुआयु० ज० अज० उ०भंगो। णिरयग०-चदुजादि-णिरयाणु०-आदावथावरादि०४ ज० अज० उ० भंगो। तिरिक्खगदितिगं ज० ज० अंतो०, उ० काय ओघके समान असंख्यात लोक कहा है। मात्र बादर एकेन्द्रिय आदिमें यह अन्तर उनकी कायस्थितिके अनुसार होनेसे तत्प्रमाण कहा है। इसी प्रकार इनके तिर्यञ्चगतित्रिकके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए। मात्र तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध सब एकेन्द्रियोंके सम्भव है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान कहा है । यहाँ अन्य जितनी परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, उनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर भी इसी प्रकार जानना चाहिए। सब विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके अन्तरका विचार जिस प्रकार उत्कृष्ट प्ररूपणामें कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। उससे इसमें कोई विशेषता न होनेसे यहाँ उसके अनुसार जानने मात्रकी सूचना की है। ६०२. पञ्चन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, पश्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। आठ कषायोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओषके समान है। स्त्रीवेदके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। चार आयुओंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चारके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। तिर्यश्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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