SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६८. पंचिं०तिरि०अप० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०--सोलसक०-भय-दु०ओरालि०-तेजा-क०-धुविगाणं ज० ज० ए०, उ० अंतो०। अज० ज० ए०, उ० बेसम० । सेसाणं ज० अज० ज० ए०, उक्क० अंतो० । एवं सव्वअपज्जत्ताणं । अनुभागबन्ध होता है, अतः यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है । तथा सामान्य तिर्यञ्चोंमें इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिककी मुख्यतासे ही प्राप्त होता है, अतः यह सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है। पञ्चन्द्रिय तिर्यचत्रिककी कायस्थितिको देखकर इनमें सातावेदनीय आदिके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है और कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें यह बन्ध हो यह सम्भव है। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । जिस तिर्यञ्चने संयमासंयमके अभिमुख होकर अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध किया है और अन्तमुहूर्त के बाद पुनः नीचे श्राकर अति शीघ्र संयमासंयमको ग्रहण करनेके पूर्व पुनः जघन्य अनुभागबन्ध किया है, उसके इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर उपलब्ध होता है और जो कायस्थितिके प्रारम्भ में और अन्तमें संयमासंयमको नहण करते हुए जघन्य अनुभागबन्ध करता है, उसके इन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उपलब्ध होता है, अतः यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्ध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण कहा है। तथा संयमासंयमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागबन्ध अपनी कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें हो यह सम्भव है। सातावेदनीयका भी यह जघन्य अनुभागबन्ध इसी प्रकार सम्भव है, इसलिए स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान कहा है । तथा उत्तम भोगभूमिमें प्रारम्भमें और अन्त में जो मिथ्यादृष्टि है और मध्यमें कुछ कम तीन पल्य तक जो सम्यग्दृष्टि है, उसके इतने काल तक स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता, अतः इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है । यहाँ जिन प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर कहा है, उनके सिवा जो शेष प्रकृतियाँ बचती हैं उनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरमें उत्कृष्ट प्ररूपणा के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरसे कोई विशेषता नहीं है, अतः यह उत्कृष्ट प्ररूपणाके समान कहा है। ५६८. पश्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कवाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तकोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-सब अपर्याप्तकों की कायस्थिति अन्तमुहूर्त है, अतः यहाँ ध्रय प्रकृतियों के अजघन्य अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तरको छोड़कर शेष सब उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। मात्र ध्रुव प्रकृतियों के जवन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय है, अतः यहाँ अजघन्य अनु १. ता० प्रा० प्रत्योः उ० अंतो । दोरणं आउगाण । एवं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy