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________________ ३७६ अंतरपरूवणा ५६७. पचिं०तिरि०३ थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० ज० अंतो०, उ० पुवकोडिपुधत्तं० । अज० तिरिक्खोघं । सादासाद-थिरादितिण्णियुग० ज० ज० ए०, उ० तिण्णि. पलि. पुवकोडिपुत्ते। अज० ज० ए०, उ० अंतो० । अपञ्चक्खाणा०४ ज० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडिपुधत्तं० । अज० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडी देसू० । इत्थि० ज० सादभंगो । अज० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० देसू० । सेसं उक्कभंगो। पर्यायमें ही सम्यक्त्वसे मिथ्वात्वमें ले जाकर यह अन्तर काल ले आना चाहिए। इसी प्रकार स्त्रीवेदके अजघन्य अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। तिर्यञ्चोंकी कायस्थिति अनन्त काल होनेसे यहाँ नपुंसकवेद आदिके जघन्य अनुभागबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है । मात्र कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य अनुभागबन्ध करा कर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। तथा कर्मभूमिमें तिर्यश्चके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है और ऐसे तिर्यञ्चके नपुंसकवेद आदिका बन्ध नहीं होता, अतः यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । तिर्यञ्च अर्धपुद्गल परिवर्तनके प्रारम्भमें और अन्तमें संयतासंयत होकर पाँच नोकषायोंका जघन्य अनुभागबन्ध करे यह सम्भव है,अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है । इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है,यह स्पष्ट ही है । उत्कृष्ट प्ररूपणाके समय नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो अन्तर बतला आये हैं,वही यहाँ क्रमसे जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर प्राप्त होता है, अतः यह प्ररूपणा उत्कृष्ट के समान कही है। ओघसे तिर्यश्चायुके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर तिर्यञ्चोंकी मुख्यतासे ही कहा है, अतः इसे जिस प्रकार वहाँ घटित करके बतला आये हैं,उसप्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । जो तिर्यञ्च पूर्वकोटिके त्रिभागमें तिर्यञ्चायुका बन्ध करके मरता है और पुनः तिर्यश्च होकर पूर्वकोटिमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर तिर्यञ्चायुका बन्ध करता है, उसके साधिक एक पूर्वकोटि काल तक तिर्यश्चायुका बन्ध नहीं होता,यह स्पष्ट है । यह देख कर यहाँ तिर्यञ्चायुके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है । सम्यग्दृष्टि तियंञ्चके चार जाति आदिका बन्ध नहीं होने से इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । शेष कथन सुगम है, क्योंकि अोध प्ररूपणामें उसका स्पष्टीकरण कर आये हैं। इस लिए वहाँ देख कर यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। ५६७. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अप्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अजघन्य अनुभाग बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । शेष भङ्ग उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-तिर्यश्चोंमें संयमासंयमके अभिमुख तिर्यश्चके ही स्त्यानगृद्धि आदिका जघन्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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