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________________ अंतरपरूवणा ३८१ ५६६. मणुस०३ खविगाणं ज० गत्थि अंतरं । अज० पगदिअंतरं। आहारदु० ज० अज० ज० अंतो०, उ. पुव्वकोडिपुध० । तित्थय० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० उ० अंतो० । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खिभंगो। गवरि तेजा०-क०-पसत्थवण्ण०४-अगु०-णिमि० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । ६००. देवेसु पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-भय-दु०-अप्पसत्थ ४-उप०-पंचंत. ज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । थीणागिदि०३भागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। शेष कथन सुगम है। ५६६. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके समान है। आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चोन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है। इतनी विशेषता है कि तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें जिन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकणिमें होता है,वे क्षपक प्रकृतियाँ हैं। उनके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सम्भव नहीं, यह स्पष्ट ही है । तथा प्रकृतिबन्धमें इनके बन्धका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है ,वही यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए । इसलिए यह अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान कहा है । क्षपक प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघात । इनमें से पुरुषवेद, हास्य और रतिको छोड़कर शेष सब ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और इनका उपशमश्रोणिमें अन्तमुहूर्त काल तक बन्ध नहीं होता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान अन्तमुहूर्त जानना चाहिए। तथा शेष तीन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त जानना चाहिए। स्वामित्वको देखते हुए आहारकद्विकका कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वके अन्तरसे जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके होता है और ऐसा जीव मनुष्यगतिमें पुनः सम्यक्त्वका सम्पादन नहीं करता, अत: इसके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा उपशमश्रोणिमें अन्तमुहूर्त काल तक इसका बन्ध नहीं होता, अतः इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते कहा है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चन्द्रिय तियञ्चोंके समान है,यह स्पष्ट ही है । मात्र तेजसशरीर आदिके अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि मनुष्यत्रिकमें उपशमश्रोणिमें इन तैजसशरीर आदिका अन्तमुहूर्तकाल तक बन्ध नहीं होता, अतः यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंसे यहाँ यही विशेषता है। ६००. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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