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________________ ३७६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६५. णिरएसु धुविगाणं ज० ज० ए०, ७० तेतीसं० देसू० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० अज० ज० अंतो', उ० तेत्तीसं० देसू० । सादासाद०--पंचणोक०--समचदु०-वजरि०--पसत्थवि०-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-जस०-अजस० [ज.] ज० ए०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अज० ज० ए०, उ. अंतो० । इत्थि०-णस०-पंचसंठा-पंचसंघ०-उज्जो०-अप्पसत्थ०भग-दुस्सर-अणादें ज० अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० देसू०। दोआउ० ज० अज० ज० ए०, उ० छम्मासं देमू० । तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०-णीचा. ज. ज. अंतो०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अज० ज० ए०, उ० तेत्तीसं देसू० । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० ज० ज० ए०, उ० वावीसं सा० देसू० । अज० ज० ए०, उ० तेतीसं० देसू । तित्थ० ज० ज० ए०, उ० तिण्णिसाग० सादि० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । एवं सत्तमाए पुढवीए । णवरि थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-दोगदि०-दोआणु०दोगोद० ज० अज० ज० अंतो०, उ० तेतीसं [ देसू० ] । छसु उवरिमासु णिरयोघं । सागर काल तक मध्यमें सम्यग्मिथ्यात्व होकर सम्यक्त्वके साथ रहने पर इतने काल तक नीचगोत्रका वन्ध नहीं होता, अतः इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। ५६५. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो अायुओंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। तियश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर है। अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, दोगति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रके जघन्य और अजघन्य १. मा० प्रवौ ज० प्रज. अंतो० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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