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________________ अंतरपरूवणा णवरि तिरिक्वग०३ णqसगभंगो । मणुसग०३ पुरिसभंगो'। ५६६. तिरिक्खेसु पंचणा०-छदंसणा०--अहक०-भय-दु०-अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० ज० ज० ए०, उ. अद्धपोग्गल० । अज० ज० ए०, उ० वेसम० । थीणगिद्धि ०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज. ओघं । अज० ज० अंतो०, ज० तिण्णिपलि. दे० । साददंडओ ओघो। अप्पञ्चक्रवा०४ ओघं । इत्थि० ज० ओघं । अज० ज० ए०, उ० तिणिपलि० दे० । णस०-तिरिक्खग०-ओरालि०-ओरालि.अंगो०-तिरिअनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। पहलेकी छह पृथिवियों में सामान्य नारकियाके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है तियश्चगतित्रिकका भङ्ग नपुंसकवेद प्रकृतिके समान है और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग पुरुषवेद प्रकृतिके समान है। विशेषार्थ-यहाँ अन्य सब खुलासा स्वामित्वको देखकर जान लेना चाहिए। जो विशेषताएँ कही हैं, उनका स्पष्टीकरण करते हैं। सातवें नरकमें मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए नारकीके होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर बन जाता है। सामान्य नारकियोंमें यही अन्तर स्त्यानगृद्धि आदि व तिर्यञ्चगति आदि कुल ग्यारह प्रकृतियोंका कहा है। यहाँ यह सब अन्तर एक समान होनेसे इसको एक साथ कहा है। मात्र स्त्यानगृद्धि आदि ११ का मिथ्यात्वमें बन्ध कराते हुए और मनुष्यगति आदि तीनका सम्यक्त्वमें बन्ध कराते हुए क्रमशः सम्यक्त्व और मिथ्यात्वमें जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल तक रखकर यह अन्तर लाना चाहिए। तथा प्रारम्भ की छह पृथिवियोंमें तिर्यञ्चगतित्रिकका मिथ्यात्व और सासादनमें तथा मनुष्यगतित्रिकका चतुर्थ गुणस्थान तक बन्ध होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंका सामान्य नारकियोंके जो अन्तर कहा है उसमें कुछ विशेषता आ जाती है, क्योंकि वहाँ वह सातवें नरककी मुख्यतासे कहा गया है। विशेषताका निर्देश मूलमें किया ही है। बात यह है कि सम्यक्त्वके होने पर मनुष्यगतित्रिकका ही बन्ध होता है, अतः पुरुषवेदके समान इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अपने-अपने नरककी कुछ कम आयुप्रमाण और अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्त जाता है। तथा नियंञ्चगतित्रिकका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता। यही हाल नपुंसकवेदका है, अतः इनका नपुसकवेदके समान अन्तर कहा है। प्रत्येक पृथिवीमें अन्तरकाल कहते समय जहाँ कुछ कम तेतीस सागर कहा है, वहाँ कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिए,यहाँ इतनी और विशेषता जाननी चाहिए। ५६६. तिर्यञ्चों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कपाय. भय, जगप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। सातादण्डकका भङ्ग ओघके समान है । अप्रत्याख्यानावरण चारका भङ्ग ओघ के समान है । स्त्रीवेदके जघन्य अनुभाग. बन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, औदारिक १. श्रा० प्रती० मणुस पुरिसभंगो इति पाठः। मुहूत बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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