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________________ भन्तरपरूषणा भागबन्ध चारों गतिके जीव संक्लेश परिणामोंसे करते हैं। ये परिणाम एक समयके अन्तरसे भी हो सकते हैं और अनन्त कालके अन्तरसे भी ही सकते हैं, अतः इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। इसी प्रकार औदारिक शरीरद्विकके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल जानना चाहिए। इन प्रकृतियोंका कमसे कम एक समय तक बन्ध नहीं होता और जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य भर कर उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है, उसके साधिक तीन पल्य तक इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य कहा है। आहारकद्विक का कमसे कम अन्तमुहर्तके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनके अन्तरसे बन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। पाँच संस्थान आदि प्रकृतियोंका कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक जघन्य अनुभागबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जधन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। यहाँ एक बात अवश्य ही विचारणीय है कि पाँच संस्थान अदिका जघन्य अनुभागबन्ध चारों गतिका संज्ञी पश्चन्द्रिय जीव परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे करता है , ऐसा स्वामित्व प्ररूपणासे ज्ञात होता है और पञ्चन्द्रिय पर्यायका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण क्यों नहीं कहा है ? जो प्रश्न इन प्रकृतियोंके इस अन्तरके विषयमें उठता है, वही प्रश्न मनुष्यगतिद्विक, वज्रर्षभनाराच संहनन और उच्चगोत्रके विषयमें भी उठता है। साधारणतः यह समाधान किया जा सकता है कि अनुभागबन्धके योग्य कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं, इसलिए यह अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु यह उत्तर तो तब सम्भव था, जब इस अन्तरमें पर्यायकी मुख्यता न होती और परिणामोंको मुख्यता होती। ऐसा विदित होता है कि इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धके स्वामित्वके निर्देशमें या तो कुछ गड़बड़ है या फिर इस विषयमें दो सम्प्रदाय रहे हैं, अतएव एक सम्प्रदायका संग्रह स्वामित्व अनुयोगद्वारमें किया है और दूसरा यहाँ अन्तर प्रकरणमें उल्लिखित किया है। आगे इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका परिमाण अनन्त बतलाया है। यह तभी सम्भव है जब एकेन्द्रियोंको भी इनके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी माना जावे। इससे भी हमारे कथनकी पुष्टि होती है। इनके अजघन्य अनुभागबन्धक अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है, यह स्पष्ट ही है। वर्षभनाराचसंहननके जघन्य अनुभागबन्ध का अन्तर पाँच संस्थान आदिके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरके समान घटित कर लेना चाहिए। तथा इसके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर जिस प्रकार औदारिकशरीरके अजघन्य अनुभागबन्ध का अन्तर घटित करके बतला आये हैं,उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए । आतपका जघन्य अनुभागबन्ध,देव और उद्योतका जघन्य अनुभागबन्ध देव और नारकी करते हैं। इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है । तथा आतपका १८५ सागर तक और उद्योतका १६३ सागर तक बन्ध न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे १८५ और १६३ सागर कहा है । नीचगोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ सातवें नरकका नारकी करता है। यह अवस्था कमसे कम अन्तमुहूर्तके अन्तरसे और अधिकसे अधिक अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालके अन्तरसे प्राप्त होती है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा जो उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ है,उसके वहाँ कुछ कम तीन पल्य तक और दो छियासठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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