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________________ ३७४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, अतः स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। यहाँ जघन्य अनुभागबन्धके बाद एक समयतक अजघन्य अनुभागबन्ध हो कर पुनः जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, अतः इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है,इतना विशेष जानना चाहिए। तथा आगे भी जहाँ जिस प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है,वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। तथा इसी प्रकार अजघन्य अनुभागबन्धका भी जघन्य अन्तर एक समय ले आना चाहिए। मात्र जहाँ कुछ विशेषता होगी.उसका हम स्वयं स्पष्टीकरण करेंगे। जहाँ विशेषता न होगी.उसे स्पष्टीकरण किये बिना छोड़ते जावेंगे । स्त्रीवेदके अजघन्य अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तरकालका खुलासा स्त्यानगृद्धि तीनके समान है । नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी स्त्रीवेदके समान है, अत: इसके जघन्य शानभागबन्धका अन्तर स्त्रीवेदके समान कहा है। तथा नपुंसकवेदका अधिकसे अधिक बन्ध तीन पल्य अधिक कुछ कम दो छियासठ सागर काल तक नहीं होता, · अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण बतला आये हैं। यह अन्तर यहाँ भी बन जाता है, अतः यह अनुत्कृष्टके समान कहा है। अरति और शोकका जघन्य अनु. भागबन्ध प्रमत्तसंयत जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल अनन्त है। इतने काल तक इस जीवके तीन आयु और वैक्रियिकषट्कका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। तिर्यश्चायुका जघन्य अनुभागबन्ध अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे नियमसे होता है, क्योंकि अनुभागबन्धके योग्य परिणाम ही इतने हैं, अतः इसके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है और तिर्यश्वायुका बन्ध अधिकसे अधिक सौ सागर पृथक्त्व कालके अन्तरसे नियमसे होता है, क्योंकि यदि कोई जीव निरन्तर अन्य तीन गतियोंमें परिभ्रमण करता है,तो वह उन गतियोंमें अधिकसे अधिक इतने काल तक ही रहता है उसके बाद वह नियम से तिर्यश्च होता है,ऐसा नियम है, अतः तिर्यश्चायुके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। तियश्चगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ सातवीं पृथिवी का नारकी करता है, यत: पुन: इस अवस्थाके उत्पन्न होनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है और उस अवस्थाके पन: उत्पन्न होनेमें अधिकसे अधिक कुछ कम अधपुद्गल परिवर्तन काल लगता है, अत: इनक जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है । तथा अधिकसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर काल तक इनका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर कहा है। मनुष्यगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध चारों गतिके जीव परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे करते हैं, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और असंख्यात लोकप्रमाण काल तक अग्नि और वायुकायिक जीवोंके इनका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनके जघन्य अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तरका स्पष्टीकरण पाँच संस्थान आदिके अन्तरके स्पष्टीकरणके समय करेंगे। चार जाति और स्थावर आदि चारका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है और ऐसे परिणाम कमसे कम एक समय अन्तरसे और अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे होते हैं. अत: इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा इनका बन्ध अधिकसे अधिक एकसौ पचासी सागर तक नहीं होता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। पञ्चन्द्रियजाति आदिका जघन्य अनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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