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________________ महाधे श्रणुभागबंधादियारे ५८८. खड्ग० पंचणा०-- वदंसणा ० -- असादा० - चदुसंज०-- पंचणोक० - अप्पसत्थ०४ - उप० अथिर-असुभ अजस० पंचंत० उ० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । अणु० ज० ए०, उ० तो ० | सादादिदंडओ घो। अक० उ० णाणा० भंगो । अणु० ओघो । मणुसायु० उ० अणु० ज० ए०, उ० छम्मासं देसू० । देवायु० उ० अणु० ज० ए०, उ० पुव्वकोडितिभागा देसू० | मणुसगदिपंचग० उ० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सू० । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । देवगदि ०४ - आहारदु० उ० णत्थि अंतरं । अ० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि० । ३६४ सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। एक तिर्थ - वायुको छोड़कर अन्य सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका यह अन्तर प्राप्त होता है, अतः वह ज्ञानावरणके समान कहा है । सातावेदनीय आदि सब परावर्तमान प्रकृतियाँ है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । नपुंसकवेद आदिका भोगभूमि में पर्याप्त अवस्था में बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है । एकेन्द्रिय अवस्था में अनन्तकाल तक तीन आयु और वैकिक छका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है । तिर्यञ्जायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण ओघसे कई आये हैं । वह यहाँ सम्भव होनेसे ओके समान कहा है। नौवें ग्रैवेयक में और अन्तमुहूर्त काल तक आगे पीछे तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर कहा है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के मनुष्यगतित्रिकका बन्ध कहीं होता और इनकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । चार जाति आदिका नरकमें और अन्तर्मुहूर्त तक आगे पीछे बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । ८८. क्षायिकसम्यक्त्व में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सातादिदण्डकका भङ्ग श्रधके समान है। आठ कषायों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओधके समान है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना हैं । देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरपूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। देवगति चतुष्क और आहार कद्विककें उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जधन्य अन्तर अन्तत है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । विशेषार्थ - क्षायिकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। इसके प्रारम्भसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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