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________________ ३६५ अन्तरपरूवणा ५८६. वेदगे पंचणा-छदसणा०-चदुसंज०--पुरिस०--भय-दु०-अप्पसत्थ०४उप०-पंचंत० उ० अणु० णत्थि अंतरं। सादा०-थिर-सुभ-जस० उ० ज० ए०, उ० छावहि० देसू० सत्थाणे । अथवा णत्थि अंतरं । यदि दसणमोहक्रववगस्स उक्स्ससामित्ते' णत्थि अंतरं । अधापवत्तसंजदस्स कीरदि तदो छावहि सा० देस० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । असादा०-अरदि०-सोग०-अथिर-असुभ-अजस० उ० णत्थि अंतरं । अणु० सादभंगो। अहक० उ० पत्थि अंतरं । अणु० ओघं । णवरि ज० और अन्तमें यथा सम्भव पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो और बीचमै न हो यह सम्भव है. अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। अन्य जिन प्रकृतियोंका यह अन्तर कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र देवगति आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका यह अन्तर लाते समय बीचमें उनका बन्ध न करावे । उसमें भी देवगतिचतुष्क और आहारकद्विककी उपशमश्रेणिमें बन्धव्युच्छित्ति करावे और अन्तर्मुहूर्तकालतक वहाँ रखकर इनका बन्ध होनेके पहले मरण करावे । तथा तेतीस सागर श्रायु तक देवपर्यायमें रखकर देवगतिचतुष्कका तो मनुष्य होनेके प्रथम समयसे बन्ध करावे और आहारकद्विकका अप्रमत्तसंयत होनेपर बन्ध करावे । यहाँ भी अधिकसे अधिक काल बाद संयम धारण करावे । पाँच ज्ञानावरणादिका उपशमश्रेणिमें कमसे कम एक समयतक और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्ततक बन्ध न होनेसे तथा असातावेदनीय आदिका इसके पूर्व बन्ध न होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। किन्तु जिसने असातावेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियोंकी छठे गुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्ति की है, उसे अप्रमत्तसंयत होने के बाद उपशमश्रेणिमें ले जाकर पुनः उतारकर इनका बन्ध करावे और जघन्य अन्तर एक समय परावर्तन द्वारा प्राप्त करे। सातादण्डकमें सातावेदनीय, पश्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, श्रगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और तीर्थङ्कर ये प्रकृतियाँ ली गई हैं। इनका ओघसे जो अन्तर कहा है, वह यहाँ बन जानेसे यह ओघके समान कहा है। आठ कषायोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका ओघसे जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। वह यहाँ भी घटित होता है, अतः यह ओघके समान कहा है । यहाँ मनुष्यायुका देवोंके और देवायुका मनुष्यों के बन्ध होता है । अतः मूलमें जो अन्तर कहा है,उसकी स्वामित्वके अनुसार संगति बिठा लेनी चाहिए । सर्वार्थसिद्धिमें प्रारम्भमें और अन्तमें मनुष्यगतिपञ्चकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो और मध्यमें न हो यह सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। ५८६. वेदकसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचार, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर स्वस्थानमें कुछ कम छियासठ सागर है । अथवा अन्तर कान नहीं है । यदि दर्शनमोहनीयके पकके उत्कृष्ट स्वामित्व करते हैं तो अन्तरकाल नहीं है। और अधःप्रवृत्तके करते हैं तो कुछ कम छियासठ सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिके उत्कृप्ट अनुभागवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का भङ्ग सातावेदनीयके समान है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । १. ता० प्रती उक्कर ससामित्त इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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